पाँव थकत, मां चलत-चलत, तू कितना गोद उठाएगी | कवयित्री – सुविधा अग्रवाल “सुवि”

पाँव थकत, मां चलत-चलत तू कितना गोद उठाएगी, बोझे से कंधा दबत-दबत, मुझको भी पीठ चढ़़ाएगी बीतै दिन रस्ता नपत-नपत, मंजिल जाने कब आएगी दूजे भरोसे रोटी तकत-तकत, भूखै जान निकल ये जाएगी निर्दय निर्मम करैं चकर-चकर, मिथ्य ढ़ांढ़स बस ये बंधाएगी छाले से पांव छिलत-छिलत, अंततः गांव पाट तू जाएगी पहुंचे जब गृृह हफत-हफत, चैन से भोज मां तू बनाएगी प्राण निकल गए भटक-भटक, अब शहर कभी तू न जाएगी   कवयित्री – सुविधा अग्रवाल “सुवि”

तू तेरे सवाल को सवाल ही रहने दे | कवी : अभिनयकुमार सिंह

मलाल तेरे मन का मलाल ही रहने दे, तू तेरे सवाल को सवाल ही रहने दे, आइना बिकता नहीं अन्धो के शहर में, तू हिन्दू के हाथो में गुलाल ही रहने दे । बवाल जाती का बवाल ही रहने दे, तू तेरे सवाल को सवाल ही रहने दे, शोर गूंजता नहीं बहरो के शहर में, तू रमजान के बकरे को हलाल ही रहने दे । दुनिया को अंधे बहरे का मिसाल ही रहने दे, तू तेरे सवाल को सवाल ही रहने दे, फर्क पता नहीं जिन्हे उजाले और प्रकाश का,…

वो बचपन के दिन | बचपन की निश्छल संवेदनाओं पर रचित कुछ भाउक कर देने वाली पंक्तियाँ

समय पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे. स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें । पढ़ाई का तनाव हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था । स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में घर से बोरी का टुकड़ा बगल में दबा कर ले जाना भी हमारी दिनचर्या थी । पुस्तक के बीच विद्या , पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ विश्वास…

खुदा की ख़ामोशी । कवी : अभिनयकुमार सिंह

ऐ खुदा बता तूने किसके नाम जगत लिखा है ? ये कौन है जो तेरे इनायतों को बाँटता है ? परिंदे भी राह भटकने लगे है आसमानो में, ये कौन है जो तेरे सल्तनत पर राज करता है । सागर पर तूने किसका हक़ लिखा है ? ये कौन है जो पानी को नाम से पुकारता है ? पानी तो घुल जाता है मिलकर पानी में, तो ये कौन है जो पानी को रंग से पहचानता है। धरा पर तूने किसका इख़्तियार रखा है ? ये कौन है जो मिटटी…

खुदा की कला | कवी : अभिनयकुमार सिंह

आसमान का आँचल है, धरती का सहारा है, मिटटी की खुशबु है, दरख़तों ने सवारा है । बादलों की मस्ती है, बारिशों का ठिकाना है, हवाओ की आहट है, बागो ने बहारा है । दरिया की रवानी है, लहरों का तराना है, तलैया की सीमा है, समंदर का किनारा है । ये खुदा की कला है, क्या खूब इसे सजाया है, निगाहे फिरे जिस ओर, एक रंगीन ही नजारा है ।   कवी : अभिनयकुमार सिंह

चंद्रमा की चंचल किरणें | कवयित्री – सुविधा अग्रवाल “सुवि”

चंद्रमा की चंचल किरणें, मुझे हर सांझ रिझाती हैं; मानो सूरज के ढ़लते ही, ये खुद पे इतराती हैं; अंतर्मन के एक कोने में, मधुर मुस्कान सजाती है; भटके हुए मनु हृदय का, पथ प्रदर्श ये कराती है; शून्यता की इस घड़ी में, इक नई आस जगाती है; अल्प है तो क्या कम है, यही संदेश भिजवाती है; चंद्रमा की चंचल किरणें, अथाह चांदनी बिखराती है।   -सुवि

कुछ आशाएं कुछ उम्मीदे वो भी सजा रही है | Mother’s Day Special

कुछ आशाएं कुछ उम्मीदे वो भी सजा रही है, जो तेरे जन्म का पीड़ा मुस्काते हुए उठा रही है, ऐ आँखें तू कोई ख्वाब मत देखना कभी, माँ तेरे आँखों में अपने सपने उतार रही है । जीना तू जीवन वैसा ही जैसा वो आस लगा रही है, माँ तुझे अपनी रियासत का राजकुमार बना रही है, आँखें मूंदे ही चलना तू उन रहो पर, अपने सपनो की लाठी पकड़ा कर तुझे अँधा बना रही है। वो ही पालन पोषण का तेरे जिम्मा उठा रही है, तुझ बेगाने से ममता…

प्रयास भी तनिक किया करो | कवयित्री – सुविधा अग्रवाल (सुवि )

आस है किसी बात की तो, प्रयास भी तनिक किया करो नयन कठोर हो गए तुम्हारे, विनम्र लोचन कर जिया करो घात ह्रदय पर क्यों सहो, मन चंचल कर लिया करो जीवन की भिन्न बाधाओं को, साहस, बुद्धि से हर लिया करो पथ से विचलित किंचित ना हो, आलोचनाओं को भी पिया करो आश्चर्य जन–मानस हुए सब, प्रसन्न रह जग-चकित किया करो सुवि

रामानंद सागर की रामायण “कल और आज” | जानें इतनी अधिक लोकप्रियता का कारण | संकल्पना एवं संकलन – शिव मिश्रा | लेखन – दीक्षा एवं पियूष

राम कथा सब विधि सुखदाई 3 दशक पुरानी बात है ,जब रामानंद सागर द्वारा बनाया गया धारावाहिक रामायण टेलीविजन के दूरदर्शन पर शुरू हुआ, तो उस वक़्त सड़कें सूनी हो जाती थी. लोग घरों के कामकाज छोड़कर दूरदर्शन पर रामायण देखने दौड़ पड़ते थे. गांव में उस समय ज्यादा लोगों के पास टीवी नहीं थी तो जिनके यहां टीवी होती थी, वहां 50 लोगों की भीड़ हो जाती थी. यूं कहें कि रामायण ने ही उस समय लोगों को टीवी खरीदने पर मजबूर कर दिया था। रामायण एक पवित्र ग्रंथ…

गीत – कोरोना, लाॅकडाउन और पुलिस | संजय पुरुषार्थी

हम खाकी वर्दीधारी हैं कोरोना पर हम भारी है भारी हैं हम. . भारी हैं हम खाकी वर्दीधारी हैं बेमौत नहीं मरने देंगे जन जन की जान हमारी है हम खाकी वर्दीधारी हैं कोरोना पर हम भारी हैं इक बात यही समझाना है घर के बाहर ना जाना है यह धरती से गद्दारी है जन जन की जान हमारी है हम खाकी…… कोरोना पर….. वायरस बनकर जो आया है वो सांसों का व्यापारी है तुमसे हमको हमसे तुमको होने वाली बीमारी है जनता की रक्षा करने को दिन रात की…