ठेस लगे है मन में मेरे, जब तुम परदा करते हो, अकारण ही तुम मुझसे, हर भेद छिपाया करते हो टूटता हूं सब जानकर फिर, क्यों अपना मुझको कहते हो, बात कोई भी हो जीवन में, निराश क्यों तुम यूं रहते हो अभिप्राय कुछ हो शब्दों का, तुम कुछ समझा करते हो कुछ अच्छा होगा हंसने को, ये बात क्यों भूला करते हो अद्भुत जीवन के सफर में, नित्य नव सीखा करते हो फिर भी तुम क्यों चित्त को, चिंतित रह भेदा करते हो..।। कवयित्री – सुविधा अग्रवाल “सुवि”
Category: Art & Entertainment
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लगे ये पीठ में खंजर | कवयित्री अनुराधा पाण्डेय
लगे ये पीठ में खंजर, किसी तो मित्र ने मारे । बहुत कम लोग वरना हैं ,कि जो हों शत्रु से हारे । अगर हो वार सम्मुख से,उसे है झेलना संभव—- मगर यदि घात छुपके हो,प्रभो भी क्या उसे टारे । किसी ने लग रहा जैसे ,अडिग विश्वास को मारा । लगे है दुष्ट पतझर ने ,किसी मधुमास को मारा । बुलाया लग रहा सागर,तृषित को आज धोखे से—– लगे ज्यों आज पनघट ने,बुलाकर प्यास को मारा । कवयित्री : अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका,नई दिल्ली।
भारत की अर्थव्यवस्था का अवलोकन | कवि – “पांडेय नज़र इलाहाबादी”
भारत की अर्थव्यवस्था का अवलोकन करने निकला हूँ। इसमें करते जो योगदान, अभिनंदन करने निकला हूँ।। वीर सपूत हैं भारत के जो , पीते और पिलाते हैं। ‘कोरोना के महायुद्ध’ में, वो अपना हाथ बटाते हैं। जैसे ही “सी एम गण “ने उनका , है आह्वान किया। टूट पड़े तन-मन-धन से अपना प्रदेश धनवान किया। चिन्ता उन्हें नहीं थी , खुद जीने की परवाह नहीं। किसी तरह मिल जाये दारू दिल में दूजी चाह नहीं। थी राह न कोई भी खाली, हर जगह दिखाई देते थे। धीरज से लग के…
पाँव थकत, मां चलत-चलत, तू कितना गोद उठाएगी | कवयित्री – सुविधा अग्रवाल “सुवि”
पाँव थकत, मां चलत-चलत तू कितना गोद उठाएगी, बोझे से कंधा दबत-दबत, मुझको भी पीठ चढ़़ाएगी बीतै दिन रस्ता नपत-नपत, मंजिल जाने कब आएगी दूजे भरोसे रोटी तकत-तकत, भूखै जान निकल ये जाएगी निर्दय निर्मम करैं चकर-चकर, मिथ्य ढ़ांढ़स बस ये बंधाएगी छाले से पांव छिलत-छिलत, अंततः गांव पाट तू जाएगी पहुंचे जब गृृह हफत-हफत, चैन से भोज मां तू बनाएगी प्राण निकल गए भटक-भटक, अब शहर कभी तू न जाएगी कवयित्री – सुविधा अग्रवाल “सुवि”
तू तेरे सवाल को सवाल ही रहने दे | कवी : अभिनयकुमार सिंह
मलाल तेरे मन का मलाल ही रहने दे, तू तेरे सवाल को सवाल ही रहने दे, आइना बिकता नहीं अन्धो के शहर में, तू हिन्दू के हाथो में गुलाल ही रहने दे । बवाल जाती का बवाल ही रहने दे, तू तेरे सवाल को सवाल ही रहने दे, शोर गूंजता नहीं बहरो के शहर में, तू रमजान के बकरे को हलाल ही रहने दे । दुनिया को अंधे बहरे का मिसाल ही रहने दे, तू तेरे सवाल को सवाल ही रहने दे, फर्क पता नहीं जिन्हे उजाले और प्रकाश का,…
वो बचपन के दिन | बचपन की निश्छल संवेदनाओं पर रचित कुछ भाउक कर देने वाली पंक्तियाँ
समय पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे. स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें । पढ़ाई का तनाव हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था । स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में घर से बोरी का टुकड़ा बगल में दबा कर ले जाना भी हमारी दिनचर्या थी । पुस्तक के बीच विद्या , पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ विश्वास…
खुदा की ख़ामोशी । कवी : अभिनयकुमार सिंह
ऐ खुदा बता तूने किसके नाम जगत लिखा है ? ये कौन है जो तेरे इनायतों को बाँटता है ? परिंदे भी राह भटकने लगे है आसमानो में, ये कौन है जो तेरे सल्तनत पर राज करता है । सागर पर तूने किसका हक़ लिखा है ? ये कौन है जो पानी को नाम से पुकारता है ? पानी तो घुल जाता है मिलकर पानी में, तो ये कौन है जो पानी को रंग से पहचानता है। धरा पर तूने किसका इख़्तियार रखा है ? ये कौन है जो मिटटी…
खुदा की कला | कवी : अभिनयकुमार सिंह
आसमान का आँचल है, धरती का सहारा है, मिटटी की खुशबु है, दरख़तों ने सवारा है । बादलों की मस्ती है, बारिशों का ठिकाना है, हवाओ की आहट है, बागो ने बहारा है । दरिया की रवानी है, लहरों का तराना है, तलैया की सीमा है, समंदर का किनारा है । ये खुदा की कला है, क्या खूब इसे सजाया है, निगाहे फिरे जिस ओर, एक रंगीन ही नजारा है । कवी : अभिनयकुमार सिंह
चंद्रमा की चंचल किरणें | कवयित्री – सुविधा अग्रवाल “सुवि”
चंद्रमा की चंचल किरणें, मुझे हर सांझ रिझाती हैं; मानो सूरज के ढ़लते ही, ये खुद पे इतराती हैं; अंतर्मन के एक कोने में, मधुर मुस्कान सजाती है; भटके हुए मनु हृदय का, पथ प्रदर्श ये कराती है; शून्यता की इस घड़ी में, इक नई आस जगाती है; अल्प है तो क्या कम है, यही संदेश भिजवाती है; चंद्रमा की चंचल किरणें, अथाह चांदनी बिखराती है। -सुवि
कुछ आशाएं कुछ उम्मीदे वो भी सजा रही है | Mother’s Day Special
कुछ आशाएं कुछ उम्मीदे वो भी सजा रही है, जो तेरे जन्म का पीड़ा मुस्काते हुए उठा रही है, ऐ आँखें तू कोई ख्वाब मत देखना कभी, माँ तेरे आँखों में अपने सपने उतार रही है । जीना तू जीवन वैसा ही जैसा वो आस लगा रही है, माँ तुझे अपनी रियासत का राजकुमार बना रही है, आँखें मूंदे ही चलना तू उन रहो पर, अपने सपनो की लाठी पकड़ा कर तुझे अँधा बना रही है। वो ही पालन पोषण का तेरे जिम्मा उठा रही है, तुझ बेगाने से ममता…