शास्त्रों में दान की अपरिमित महिमा आयी है और दान में देय-द्रव्यों की भी संख्या अपरिगणित ही है, किंतु उसमें विशेष बात यह है कि देयवस्तु में दाता का स्वत्वाधिकार होना चाहिए। पुरुषों तथा स्त्रियों में दान के कुछ पदार्थों की संख्या भी नियत रूप में आयी है, जैसे सोलह महादान, दसदान, अष्ट दान, पंचधेनु दान आदि। यहाँ सोलह महादानों की संक्षेप में चर्चा प्रस्तुत है
एक बार की बात है, सूत से ऋषियों ने प्रश्न किया कि हे सूतजी! सभी शास्त्रों में न्यायपूर्वक धनार्जन, सत्प्रयत्नपूर्वक उसकी वृद्धि, उसकी रक्षा और सत्पात्र को उसको दान करना-कहा गया है तो कृपया बतायें कि वह कौन-सा दान है, जिसके करने से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ? ऋषियों का प्रश्न सुनकर सूतजी बड़े प्रसन्न हुए और
बोले-ऋषियों! वह दान सामान्य दान नहीं, अपितु महादान कहलाता है। वह सर्वश्रेष्ठ दान है, वह सभी पापों को नष्ट करने वाला तथा दुःस्वप्न का विनाशक है ‘सर्वपापक्षयकरं नृणां दुःस्वप्न नाशनम् ॥ (मत्स्यपुराण २७४। ४) उस महादान को भगवान विष्णु पृथ्वी लोक में सोलह रूपों में विभक्त बताया है। वे सभी सोलह दान पुण्यप्रद, पवित्र, दीर्घ आयु प्रदान करने वाले, सभी पापों के विनाशक तथा अत्यन्त मङ्गलकारी हैं। वे दान ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि देवताओं द्वारा पूजित हैं
यत् तत् षोडशधा प्रोक्तं वासुदेवेन भूतले। पुण्यं पवित्रमायुष्यं सर्वपापहरं शुभम् ॥ पूजितं देवता भिश्च ब्रह्म विष्णु शिवादिभिः ।
(मत्स्यपु० २७४। ५-६)
इन दानों की अतीव महिमा है। सकाम इनका सम्पादन करने पर जो फल है, वह तो है ही; जो निष्काम भावसे इन सोलह महादानों को करता है, उसे पुनः इस मर्त्यलोक में आना नहीं पड़ता, वह मुक्त हो जाता है।
षोडशैतानि यः कुर्यान्महादानानि मानवः ।
न तस्य पुनरावृत्तिरिह लोकेऽभि जायते॥
(मत्स्यपु० २८९ । १६)
ये सोलह दान इस प्रकार हैं
(१) तुलापुरुषदान, (२) हिरण्यगर्भ दान, (३) ब्रह्माण्डदान, (४) कल्पवृक्षदान, (५) सहस्रनाम, (६) हिरण्यकामधेनुदान, (७) हिरण्याश्वदान, (८) हिरण्य श्वरथदान, (९) हेमहस्तिरथदान, (१०) पञ्चलांगलकदान, (११) धरादान, (१२) विश्वचक्रदान, (१३) कल्पलतादान, (१४) सप्तसागरदान, (१५) रत्नधेनुदान तथा (१६) महाभूत घटदान।
सोलह महादानों की परम्परा-प्राचीन काल में इन दानों को भगवान वासुदेव ने किया था, उसके बाद राजर्षि अम्बरीष, भृगुवंशी परशुरामजी, सहस्रबाहुवाले राजा कार्तवीर्यार्जुन, भक्तराज प्रह्लाद, आदिराज पृथु तथा भरत आदि अन्यान्य श्रेष्ठ राजाओं ने किया था। ये सभी दान सामान्य सामर्थ्यवाले के लिये कठिन प्रतीत होते हैं। अत: साधन सम्पन्न पुरुषों द्वारा अपने कल्याण के लिये इन महादानों का अनुष्ठान होता रहा है। इन दानों में से यदि एक भी दान सम्पन्न हो जाय तो उसके सत्फल की इयत्ता नहीं है। इन दानों को करने से पूर्व भगवान वासुदेव, शंकर और भगवान् विनायक की आराधना करनी चाहिये तथा ब्राह्मणों की आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये। किसी तीर्थ, मन्दिर या गोशाला में, कूप, बगीचा या नदी के तट पर, अपने घर पर या पवित्र वन में अथवा पवित्र तालाब के किनारे इन मतदान को करना चाहिये। चूँकि यह जीवन अस्थिर है, सम्पत्ति अत्यन्त चंचल है, मृत्यु सर्वदा केश पकड़े खड़ी है; इसलिये दानादि धर्माचरण करना चाहिये अनित्यं
जीवितं यस्माद् वसु चातीव चञ्चलम्। केशेष्वेव गृहीतः सन्मृत्युना धर्ममाचरेत्॥
(मत्स्य पु० २७४। २४)
महादानों को कब करे- मत्स्यभगवान ने मनुजी को बताया है कि हे राजन्! संसार-भय से भयभीत मनुष्य को अयनपरिवर्तन के समय (कर्क तथा मकर की संक्रान्ति), विषुवयोग में, पुण्यदिनों, व्यतीपात, दिनक्षय तथा युगादि तिथियों में, सूर्य-चन्द्रग्रहण के समय, मन्वन्तर के प्रारम्भ में, संक्रांति के दिन, द्वादशी तथा अष्टमी (हेमन्त, शिशिर ऋतुओं के कृष्ण पक्ष की चारों अष्टमी) तिथियों तथा यज्ञ एवं विवाह के अवसर पर, दुःस्वप्न देखने पर या किसी अद्भुत उत्पात के होने पर यथेष्ट
द्रव्य तथा ब्राह्मण के मिलने पर अथवा जब जहाँ श्रद्धा उत्पन्न हो जाय, इन दानों को करना चाहिये।
इन सोलह महादानों में तुलादान या तुलापुरुष दान सर्वप्रथम परिगणित है, इसकी विस्तृत विधि पुराणों में बतायी गयी है। तुलापुरुषदान में तुला का निर्माणकर तुला के एक ओर तुलादान करने वाला तथा दूसरी ओर दाता के भार के बराबर की वस्तु तौलकर ब्राह्मण को दान में दी जाती है। तुलादान में इन्द्रादि आठ लोकपालों का विशेष पूजन होता है। तुला में अधिरोहण से पूर्व तुलादाता को श्वेत वस्त्र धारणकर अंजलि में पुष्प लेकर उस तुला की तीन बार परिक्रमा करनी चाहिये और इन मन्त्रों से उसे अभिमंत्रित करना चाहिये
नमस्ते सर्वदेवानां शक्तिस्त्वं सत्यमास्थिता ॥ साक्षिभूता जगद्धात्री निर्मिता विश्व योजना। एकतः सर्वसत्यानि तथानृतशतानि च।। धर्माधर्मकृतां मध्ये स्थापितासि जगद्धिते।
त्वं तुले सर्वभूतानां प्रमाणमिह कीर्तन ॥
मां तोलयन्ती संसारादुद्धरस्व नमोऽस्तु ते। योऽसौ तत्त्वाधिपो देवः पुरुषः पञ्चविंशकः॥ स एकोऽधिष्ठितो देवि त्वयि तस्मान्नमो नमः । नमो नमस्ते गोविन्द तुलापुरुषसंज्ञक ।
त्वं हरे तारयस्वास्मानस्मात् संसारकर्दमात्।
(मत्स्यपु० २७४ । ५९-६४)
हे भोले! तुम सभी देवताओं की शक्ति स्वरूपा हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम सत्य की आश्रयभूता, साक्षिस्वरूपा, जगत् को धारण करने वाली और विश्वयोनि ब्रह्मा द्वारा निर्मित की गयी हो, जगत्की कल्याणकारिणि! तुम्हारे एक पलड़े पर सभी सत्य हैं, दूसरे पर सौ असत्य हैं। धर्मात्मा और पापियों के बीच तुम्हारी स्थापना हुई है। तुम भूतल पर सभी जीवों के लिये प्रमाणरूप बतलायी गयी हो। मुझे तोलती हुई तुम इस संसार से मेरा उद्धार कर दो, तुम्हें नमस्कार है। देवि! जो ये तत्त्वों के अधीश्वर पचीसवें पुरुष भगवान् हैं, वे एकमात्र तुम्हीं में अधिष्ठित हैं, इसलिये तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। तुलापुरुष नामधारी गोविन्द आपको बारम्बार अभिवादन है। हरे! आप इस संसाररूपी पंक से हमारा उद्धार कीजिये।
तदनन्तर दाता तुला में आरोहण कर स्थित हो जाए।
ब्राह्मण गण तुला के दूसरी ओर स्वर्ण आदि (तुलनीय द्रव्य) तब तक रखते जायें, जब तक तराजू का वह पलड़ा भूमिपर स्पर्श न कर ले।
तुला को नमस्कार-
तदनन्तर निम्न मन्त्र से तुलाबको नमस्कार करना चाहिये
नमस्ते सर्वभूतानां साक्षिभूते सनातनि । पितामहेन देवि त्वं निर्मिता परमेष्ठिनः।।
त्वया धृतं जगत् सर्वं सहस्थावरजङ्गमम्। (मत्स्य पु० २७४। ६९-७०)
सर्वभूतात्मभूतस्थे नमस्ते विश्व धारिणि॥
सभी जीवों की साक्षीभूता सनातनी देवि! तुम पितामह ब्रह्मा द्वारा निर्मित हुई हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम! तुम समस्त स्थावर-जंगम रूप जगत को धारण करने वाली हो, सभी जीवों को आत्मभूत करने वाली विश्वधारिणि! तुम्हें नमस्कार है।
इसके अनन्तर तुला से उतरकर उस स्वर्ण का दान कर देना चाहिये। यह बताया गया है कि बुद्धिमान् पुरुष उस तौले हुए स्वर्ण को अधिक देरतक अपने घर में न रखे ‘न चिरं धारयेद् गेहे सुवर्ण प्रोक्षितं बुधः ॥ (मत्स्यपुराण २७४। ७३ )
ऐसा करने से अर्थात् देर तक रखने से वह भय, व्याधि तथा शोक आदि को देने वाला होता है। अतः शीघ्र ही उसका दान कर देना चाहिये। उसे शीघ्र ही दूसरे को दे देने से मनुष्य श्रेयका भागी हो जाता है। तुलापुरुषदान की महिमा में कहा गया है कि तुलापुरुष का दान करने वाला विष्णुलोक को जाता है। इतना ही नहीं, इस दान की प्रक्रिया को जो देखता-सुनता है, पढ़ता है अथवा उसका स्मरण करता है, वह भी इन्द्र होकर दिव्य लोक प्राप्त करता है।
दानमयूख में बताया गया है कि रत्न, रजत (चाँदी), लौह आदि धातु, घृत, लवण, गुड़, शर्करा, चन्दन, कुमकुम, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, कर्पूर, फल तथा अन्नादि द्रव्यों से भी विविध कामनाओं की पूर्ति के लिये तुलादान किया जाता है। इसी प्रकार विविध रोगों की शांति के लिये तथा मृत्युंजय देवता की प्रसन्नता के लिये भी विविध वस्तुओं से तुलादान किया जाता है, सभी रोगों की शांति के लिये लौह से तुलादान किया जाता है-‘अथ लोहे प्रदातव्यं सर्वर उपशान्तये’ (दानमयूखमें गरुड़ पुराण का वचन)।
महादानों में दूसरा महादान हिरण्यगर्भ दान है, इसकी विधि भी तुलापुरुषदान के समान है । इसमें सुवर्णमय कलश का विशेष विधि से दान किया जाता है, तीसरा दान है ब्रह्माण्ड दान। इसमें सुवर्ण का ब्रह्माण्ड बनाकर दान किया जाता है, चौथे कल्पपादपदान में सुवर्णमय कल्पवृक्ष का दान होता है। पाँचवें सहस्रनाम के अन्तर्गत एक नन्दिकेश्वर तथा हजार गौओं का दान होता है, उन्हें स्वर्ण से निर्मित किया जाता है। छठे कामधेनुदान में सुवर्ण की धेनु तथा सुवर्ण का ही वत्स बनाकर दान किया जाता है। इसी प्रकार सुवर्णमय अश्व तथा सुवर्णमय अश्वरथ का दान होता है। नौवाँ दान सुवर्णनिर्मित हस्तिरथ का होता है, ऐसे ही दसवाँ दान पंचलांगल दान है। लांगल हल को कहते हैं। इसमें सुवर्णनिर्मित पाँच हल और दस वृष के साथ भूमि का दान होता है। ग्यारहवाँ दान सुवर्णमयी पृथ्वी का दान है । इसका नाम हेमधरादान भी है। इसमें जम्बूद्वीप के आकार की भाँति सोने की पृथ्वी बनवाकर उसका दान किया जाता है । बारहवें विश्व चक्र दान में सोने से विश्व चक्र बनाकर उसके नाभि कमल पर चतुर्भुज विष्णु की प्रतिमा को स्थापितकर उसका दान किया जाता है। तेरहवां दान कनककल्पलता नामक महादान है। चौदहवाँ सप्तसागर नाम का दान है। इसमें सुवर्ण में सात कुण्ड बनाकर प्रथम कुण्ड को लवण से, द्वितीय कुण्ड को दुग्ध से, इसी प्रकार घृत, गुड़, दही, चीनी तथा सातवें को तीर्थोंके जलसे भरकर उसमें विविध देवताओं की सुवर्णमय प्रतिमा का स्थापन कर विशेष विधिसे दान किया जाता है। पन्द्रहवाँ महादान रत्नधेनुदान है, इसमें पृथ्वी पर कृष्ण मृगचर्म बिछाकर उसके ऊपर लवण बिछाकर उसके ऊपर रत्नमयी धेनु को स्थापित करे, विविध रत्नों द्वारा रत्नमयी धेनु का निर्माण होता है। तदनन्तर विधिपूर्वक उसका आवाहनकर दान किया जाता है। सोलहवाँ दान महाभूतघटदान कहा जाता है। इसमें रत्नों से जटित सुवर्णमय कलश की स्थापना कर दुग्ध और घृत से उसे परिपूर्ण किया जाता है। उस घट में देवताओं तथा वेदों का आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर यथाविधि उसका दान किया जाता है।
आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र