एक एक पग धर मैं धरती से आकाश पदार्पण करती हूं।
हैं पैर धरा शीश पर मैं अंतरिक्ष को धारण करती हूं।।
ये देह धरा से जन्मी है ये देह धरा की पूंजी है।
आकाश की है आत्मा पूंजी आकाश को अर्पण करती हूं।।
एक एक पग धर……………..।।
तुम पूर्ण ब्रम्ह अपूर्ण रूप जब तक न समाहित मैं समझूँ।
तुम सुलझाओ सम्पूर्ण रूप, मैं अंश बनूँ फिर से उलझूँ।।
मैं तन को पृथक पृथ्वी देखूँ और मन को मैं आकाश कहूँ।
प्रकृति को मैं आधार कहूँ, आत्मा को मैं अवकाश कहूँ।।
जब पूर्ण ब्रम्ह समझी तुमको सर्वस्व समर्पण करती हूं।
एक एक पग धर……………..।।
मैं एक आत्मा, एक तत्व, तुम एक विधाता परमतत्त्व।
मैं एक बोध भ्रमित प्रीय,तुम पूर्ण ब्रम्ह तुम पूर्ण सत्व।।
ये समझ के भी भ्रम में उलझी, मैं सीमित,तुम हो असीम सत्य।
तेरे संचालन में आ जाऊं तुमसे प्रीय अर्चन करती हूँ।
एक एक पग धर……………..।।
ब्रम्हांड समाहित है तुममें ब्रम्हांड विलित मुझमें भी है।
अस्तित्व विलय प्रीय तुममें है, अस्तित्व बोध मुझमें भी है।।
लीला करता है सकल विश्व हर एक आत्मा लीन मगन।
ब्रम्हांड हमीं हम एक रूप, हम आवेशित संग आकर्षण ।।
तुम मुझमें हो मैं तुममें हूँ तब भी अन्वेषण करती हूं।
एक एक पग धर……………..।।
कवयित्री – प्रतिमा दीक्षित