मंत्र शरीर को रोग, भय, दुख, शोक, विजय, शत्रुनाश, वशीकरण आदि से लेकर समस्त सांसारिक दुखों से मुक्त करने और ईश्वर प्राप्ति में पूर्णतः सक्षम हैं। मंत्र योग संहिता के अनुसार – मंत्रार्थ भावनं जपः अर्थात् प्रत्येक मंत्र के अर्थ को जानकर ही जप करने पर अभीष्ट फल प्राप्त होता है।
मंत्र शब्द में मन और त्र ये दो शब्द हैं। मन शब्द से मन को एकाग्र करना और त्र शब्द से त्राण अर्थात् रक्षा करना। यदि मंत्रों का उच्चारण सटीक हो तो जप करने पर अभीष्ट फल प्राप्त होता है।
षट्कर्मों में मंत्रों का प्रयोग
मंत्रों का प्रयोग षट्कर्मों में भी होता है। षट्कर्म छह होते हैं। जिसमें जिस कृत्य द्वारा व्यक्ति को वश में किया जाए वह वशीकरण, जिस कृत्य द्वारा रोग, बुरे कर्म, ग्रह दोष निवारण किया जाए वह शांतिकर्म होता है।
जिसके द्वारा किसी की गति को अवरुद्ध किया जाए वह स्तंभन, जिसके द्वारा दो व्यक्तियों में वैर-भाव पैदा किया जाए वह विद्वेषण, किसी व्यक्ति को उसके स्थान से हटाना उच्चाटन, किसी के प्राण नाश करना मारण कर्म कहलाता है।
जैसी भावना, वैसा फल
मंत्रों का सात्विक कार्य के लिए उपयोग सुखप्रद एवं किसी को हानि पहुंचाने के लिए उपयोग दुखप्रद होता है। मंत्र में एक वर्ण का मंत्र कत्र्तरी, दो वर्ण का मंत्र सूची, तीन वर्ण का मुद्गर, चार का मंत्र मुसल, पांच वर्ण का क्रूर शनि, छह का शृंखल होता है।
इसी प्रकार सात का क्रकच, आठ का शूल, नौ का वज्र, दस का शक्ति, ग्यारह का परशु, बारह का चक्र, तेरह का कुलिश, चौदह का नाराच, पंद्रह का भुशुंडी और सोलह अक्षर का मंत्र पद्म कहलाता है।
फल की सिद्धि में सहायक
मंत्रच्छेद में कत्र्तरी, भजन में मुद्गर, क्षोभण में मूसल, बंधन क्रिया में शृंखल, सभी कार्यों में चक्र, उन्माद में कुलिश, मारण कर्म में भुशुंडी, भेदकर्म में सूची और शांति कर्म में पद्म का उच्चारण अभीष्ट फल प्राप्ति में सहायक होता है।
पचास वर्णों वाली मातृका देवी से प्रादुर्भूत मंत्र भय, शोक, दुख निवारण, विजय आदि समस्त कार्यों को करने में सक्षम होते हैं।
अक्षर का है महत्व
जिस मंत्र में चंद्र बिंदु व अमृताक्षर होता है वह सौम्य मंत्र कहलाता है। मंत्र के अंत में ú आने पर वह आग्नेय मंत्र कहलाता है। नमः शब्द आग्नेय मंत्र के अंत में आने पर वह सौम्य मंत्र कहलाता है।
सौम्य के अंत में फट् आने पर वह आग्नेय मंत्र कहलाता है। मंत्र के प्रारम्भ में आने वाला नाम पल्लव कहलाता है।
बीज मंत्र में छिपे रहस्य
प्रत्येक कार्य के लिए अलग-अलग बीज मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। जैसे ज्वर निवृत्ति, हवन करते समय स्वाहा, शांति अनुष्ठान, प्रेम सौहार्द, पूजन आदि के लिए नमः, उच्चाटन, वैरभाव पैदा करने के लिए वौषट्, अरिष्ट ग्रह शांति के लिए हुं फट्, लाभ हानि जैसे कर्मों के लिए वषट् बीज मंत्र का उच्चारण किया जाता है।
दाएं नासिका छिद्र से श्वसन क्रिया में आग्नेय मंत्र जाग्रत रहता है। बाएं नासिका छिद्र से श्वसन क्रिया में सौम्य मंत्र जाग्रत रहता है। दोनों नासिका छिद्रों से श्वसन क्रिया में सभी प्रकार के मंत्र जाग्रत रहते हैं। जाग्रत मंत्रों का जप ही अभीष्ट फल प्राप्ति में सहायक होता है।
आसन और मुद्राएं
तंत्र शास्त्र में प्रत्येक षट्कर्म के अलग-अलग आसन और अलग-अलग मुद्राएं होती हैं, जैसे शांति कर्म स्वस्तिकासन में एवं पद्म मुद्रा में किया जाता है। इसके अलावा षट्कर्म अनुसार ही देवता का ध्यान किया जाता है।
जैसे शांति, आकर्षण, पुष्टि प्राप्त करने के लिए सुंदर, नवयौवना, प्रसन्न मुख, आभूषणयुक्त देवी या देवता का ध्यान किया जाता है। इसी प्रकार षट्कर्म में मंत्रसिद्धि के लिए प्रत्येक का बैठने का आसन भी अलग-अलग होता है।
आसन व माला का महत्व
लाल रंग के कंबल का आसन सभी कामनाओं की पूर्ति के लिए श्रेष्ठ व शुभ कहा जाता है। इसी प्रकार षट्कर्म में अलग-अलग कर्मों के लिए अलग-अलग माला यथा कमल गट्टे की माला, स्फटिक, मोती, मूंगे आदि की माला का प्रयोग होता है।
लेकिन रुद्राक्ष की माला से किसी भी मंत्र का जप अवश्य फलदायी होता है। जप करते समय जिस जप में मंत्र दूसरे को सुनाई दे वह वाचिक जप कहलाता है। जो जप दूसरे को सुनाई न दे किंतु जिह्वा व होंठ हिलते रहे वह उपांशु जप, जिसमें होंठ व जिह्वा न हिलती हो वह मानसिक जप कहलाता है।
मानसिक जप मोक्ष प्राप्ति के लिए वाचिक जप अभिचार कर्म के लिए एवं उपांशु जप शांतिकर्म के लिए उपयोगी होता है।
ऐसे मिलेगी सिद्धि
प्रत्येक मंत्र की सिद्धि में निर्धारित मंत्र संख्या अनुसार मंत्र जप, उसका दशांश हवन, दशांश तर्पण, दशांश मार्जन एवं उसका दशांश ब्राह्मण भोजन होता है।
पुरश्चरण पश्चात् ही अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। मंत्र सिद्धि के लिए मंत्र जप में एकाग्रता द्वारा ईश्वर से एकाकार, मन की शुद्धता एवं पवित्रता महत्वपूर्ण है।
मंत्र साधना से साधक ईश्वर दर्शन, परकाया प्रवेश से लेकर सभी कामनाओं की पूर्ति कर सकता है।
कल्याणकारी हो लक्ष्य
मंत्रों का दूसरे या स्वयं की पीड़ा, रोग, कष्ट निवारण के लिए प्रयोग ही सदैव सुखदायी होता है। भौतिक सुखों की प्राप्ति, दूसरे को संताप, कष्ट पहुंचाने के लिए किया गया प्रयोग सदैव दुखदायी होता है। मंत्रों का प्रयोग सदैव शुभ, सात्विक कर्मों के लिए ही किया जाना चाहिए।
- डॉ0 विजय शंकर मिश्र