‘विश्वामित्र कल्प’ में ब्रह्मदण्ड, ब्रह्मशाप, ब्रह्मास्त्र आदि ऐसे प्रसंगों का वर्णन है जिनके आधार पर किसी को दण्ड स्वरूप शाप देने के प्रारूप और विधान का वर्णन है। तपस्वियों की वाणी में इतनी विशिष्टता हो जाती है कि उनकी वाक् सिद्धि किसी को प्रसन्न होने पर वरदान भी दे सकती है और क्रुद्ध होने पर शाप भी। पर उसका कुछ कारण होना चाहिए। अकारण निर्दोषों को दिये हुये शाप प्रायः फलित भी नहीं होते। सिद्ध वाणी बादल की तरह अमृत भी बरसा सकती है।
परीक्षित ने समाधिस्थ लोमश ऋषि का तिरस्कार करने के लिए मरा हुआ सांप गले में डाल दिया। समाधि खुलने पर ऋषि लोमश को इस कुकृत्य पर क्षोभ हुआ और उनने शाप दिया कि यह मरा हुआ सांप जीवित हो उठे और जिस किसी ने यह कुकृत्य किया हो उसे एक सप्ताह के भीतर डस कर उसका प्राणान्त कर दे। यह शाप यथार्थ सिद्ध हुआ और तक्षक के काटने से एक सप्ताह के भीतर परीक्षित की मृत्यु हो गयी।
दशरथ ने तालाब से श्रवणकुमार को पानी का घड़ा भरते समय उसे हाथी जाना और उस पर तीर चला दिया। श्रवणकुमार को तीर लगा। उनके पिता ने शाप दिया कि मैं जिस प्रकार पुत्र शोक में तड़प कर मर रहा हूं, उसी प्रकार तुम्हारी भी मृत्यू पुत्र शोक में होगी। वैसा ही हुआ भी। दशरथ को पुत्र शोक में ही बिलख कर मरना पड़ा।
कृष्ण और राधा प्रेमालाप में इतने निमग्न थे कि वे आये हुये दुर्वासा पुरोहित की ओर ध्यान न दे सके। क्रुद्ध दुर्वासा ने शाप देकर राधा को तुलसी और कृष्ण को शालिग्राम के रूप में पेड़ और पाषाण बने रहने के लिए बाधित कर दिया था।
अहिल्या के साथ अश्लील व्यवहार करने पर गौतम ऋषि ने शाप दिया कि इन्द्र के शरीर में सहस्र छिद्र निकल पड़ें। और चन्द्रमा कभी एक रूप में स्थिर नहीं रहे। तदुपरान्त वे दोनों ही इसी स्थिति में रहकर दिन काटने लगे।
कालिदास ने मेघदूत में यक्ष विरह का वर्णन किया है। उन पति-पत्नी का वियोग भी ऋषि शापवश ही हुआ था।
रावण को, गुरु बृहस्पति ने शाप दिया था कि वह किसी महिला से दुराचार करने का प्रयास करेगा तो उसके शिर कटकर गिर पड़ेंगे। सीता का अपहरण तो वह कर लाया, पर बलात् उसी शाप के भय से उन्हें रानी बनने के लिए विवश न कर सका।
नहुष ने यज्ञ सम्पदा सम्पादित करके स्वर्ग तो प्राप्त कर लिया, पर वह पद पाते ही औचित्य को भूल बैठा और इन्द्राणी को अपनी पत्नी बनाने का प्रयास करने लगा। इन्द्राणी ने चाल चली कि ऋषियों को पालकी में जोतकर महल में आओ। वह मोहान्ध होकर वैसा ही करने को उतारू हो गया। ऋषियों ने पालकी पटक दी और उसे सर्प बनने का शाप दिया और वह सर्प हो गया। राजा नृग को भी इसी प्रकार गिरगिट की योनि मिली थी। अष्टावक्र जब माता के गर्भ में थे, तभी पिता के उच्चारण में रही व्याकरण सम्बन्धी उनकी गलतियां बताने लगे थे। पिता ने इसमें अपना अपमान समझा और शाप दिया कि जन्म होने पर तू आठ जगह से टूटा हुआ होगा। जब वे जन्मे तब आठ जगह से टूटे हुए थे।
बालि को शाप लगा हुआ था कि वह यदि चित्रकूट पर्वत पर जायगा तो मर जायगा। इसका सुग्रीव को स्मरण था। वह अपना प्राण बचाने के लिए उसी पर्वत पर निवास करता था। बालि उससे लड़ने कि लिए चित्रकूट पर नहीं जा पाता था।
अनुसूइया ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को अबोध बालक बना दिया था। शिव के शाप से कामदेव भस्म हुआ था। सगर पुत्रों ने ऋषि पर अश्व चोरी का आरोप लगा दिया और उन्हें गंगा के पृथ्वी पर न आने तक नरक की अग्नि में जलते रहने का शाप दिया। दमयन्ती के शाप से व्याघ्र तत्काल भस्म हो गया था।
ऐसे अनेकों कथानकों का इतिहास-पुराणों में वर्णन है जिनके कारण अनेकों को तपस्वियों की प्रसन्नता का अभेद्य वरदान मिला और कितनों का सर्वनाश हो गया।
सत्यनारायण कथा में साधु वैश्य की नाव का धन घासपात हो गया था और उन्हें चोरी के लांछन में बन्दी रहना पड़ा था। यह वृद्ध ब्राह्मण का शाप ही था। तुंगध्वज राजा की ऐसी ही दुर्गति प्रसाद के परित्याग करने से शापवश ही हुई थी।
दुर्वासा का उपहास उड़ाने वाले एक लड़के को स्त्री बनना पड़ा। उद्दण्ड लड़के यह पूछने गये थे कि इसके पेट से लड़का होगा या लड़की। ऋषि ने पेट पर बंधे हुए उस लौह मूसल को देखा और शाप दिया कि इसी के बने शस्त्रों से तुम सब आपस में लड़-मर कर समाप्त हो जाओगे। वैसा ही हुआ भी। द्वारिका के समस्त यदुवंशी आपस में ही लड़-खपकर समाप्त हो गये।
इस प्रकार के कथानकों की कमी नहीं, जिनमें शाप और वरदान के फलस्वरूप अनेकों को वैभव मिला और अनेकों बर्बाद हो गये। इसीलिए वरदान को स्वाति वर्षा और शाप को शब्दबेधी बाण की उपमा दी गयी है। यह अपनी सामर्थ्य का भले या बुरे प्रयोजनों के लिए हस्तान्तरण ही है। यह किया जा सकता है। आद्य शंकराचार्य तो अपने शरीर में से प्राणों को निकाल कर एक राजा के शरीर में छह महीने अनुभव प्राप्त करते रहे थे, पीछे अपने शरीर में लौट आये थे। दक्ष के अपमान से क्रुद्ध शिवजी ने अपना एक बाल उखाड़ कर जमीन पर पटका। उससे भयंकर कृत्या उत्पन्न हुई और दक्ष का शिर काट डाला।
इतिहास पुराणों में ऐसी अनेकानेक घटनाओं का वर्णन है। यह आत्मशक्ति का भला-बुरा उपयोग करने पर उसके द्वारा हो सकने वाले परिणामों का दिग्दर्शन है। आत्म शक्ति एक प्रकार की प्राण ऊर्जा है। अग्नि से हित भी हो सकता है और अनर्थ भी। मकरध्वज जैसी रसायनें बनाने में चिकित्सक उसका सदुपयोग करते हैं और अग्निकाण्ड में उसका उपयोग होने पर उससे समूचा क्षेत्र जल कर भस्म हो सकता है। उपयोग किसने किस प्रकार का किया यह प्रश्न अलग है, पर इस मान्यता को स्वीकार करने में कोई अड़चन आने की गुंजाइश नहीं है कि तप साधना से शक्ति उत्पन्न होती है- विद्युत या अग्नि जैसी। उसके द्वारा अपना ही नहीं दूसरों का भी हित-अहित किया जा सकता है। शस्त्र सुरक्षा के काम भी आते हैं और आक्रमण के काम में भी।
तान्त्रिक क्रिया-कलापों में इस शक्ति को प्रायः दूसरों को आतंकित, भयभीत, संत्रस्त करने के काम में ही प्रयुक्त किया जाता है। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि के सभी विधान ऐसे हैं, जिनमें दुरात्माओं को आतंकित एवं प्रताड़ित करके उन्हें राह पर लाया जाता है। जिन पर सज्जनता का प्रभाव नहीं पड़ता, उन्हें दण्ड द्वारा सही राह पर लगाया जाता है। तपस्वियों के पास भी ब्रह्मदण्ड, ब्रह्मास्त्र जैसे साधन होते हैं। उन्हें असहाय नहीं मानना चाहिए।
तप के द्वारा वरदान प्राप्त करने का इतिहास भी ऐसा ही सुविस्तृत है। मनुष्य देवता बनते हैं। स्वर्ग में निवास करते हैं। भगवान के पार्षद बनकर, उनके सहचर बनकर हनुमान जैसा श्रेय प्राप्त करते हैं।
नारद के आशीर्वाद से बाल्मीकि, ध्रुव, प्रहलाद, पार्वती आदि को ऐसा ही श्रेय प्राप्त हुआ था, जो साधारण मनुष्यों जैसी जीवनचर्या अपनाने पर सम्भव नहीं था। असुरों में से भी कई ने कई तरह के वरदान पाये, पर दुरुपयोग होने पर उनके लिए हानिकारक ही सिद्ध हुए इसीलिए पात्रता का विधान अध्यात्म में अनिवार्यता बनाया गया है।