माता कैकयी ने महाराज दशरथ से भरत जी को राजगद्दी और श्री राम को चौदह वर्ष का वनवास माँगा, हो सकता हैं की बहुत से विद्वानों के लिए ये साधारण सा प्रश्न हो ,लेकिन जब भी ये प्रश्न मस्तिष्क में आता हैं संतोषजनक उत्तर प्राप्त करने के लिए मन बेचैन हो जाता हैं।
प्रश्न ये हैं की श्री राम को आखिर चौदहवर्ष का ही वनवास क्यों ? क्यों नहीं चौदह से कम या चौदह से ज्यादा ?
भगवान् राम ने एक आदर्श पुत्र, भाई, शिष्य, पति,मित्र और गुरु बन कर ये ही दर्शाया की व्यक्ति को रिश्तो का निर्वाह किस प्रकार करना चाहिए।
राम का दर्शन करने पर हम पाते है कि अयोध्या हमारा शरीर है जो की सरयू नदी यानि हमारे मन के पास है। अयोध्या का एक नाम अवध भी है। (अ वध) अर्थात जहाँ कोई या अपराध न हों। जब इस शरीर का चंचल मन सरयू सा शांत हो जाता है और इससे कोई अपराध नहीं होता तो ये शरीर ही अयोध्या कहलाता है।
शरीर का तत्व (जीव), इस अयोध्या का राजा दशरथ है। दशरथ का अर्थ हुआ वो व्यक्ति जो इस शरीर रूपी रथ में जुटे हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रख सके।
तीन गुण सतगुण, रजोगुण और तमोगुण दशरथ तीन रानियाँ कौशल्या, सुमित्रा और कैकई है। दशरथ रूपी साधक ने अपने जीवन में चारों पुरुषार्थों धर्म, अर्थ काम और मोक्ष को राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूपमें प्राप्त किया था।
तत्वदर्शन करने पर हम पाते है कि धर्मस्वरूप भगवान् राम स्वयं ब्रह्म है।शेषनाग भगवान् लक्ष्मण वैराग्य है, माँ सीता शांति और भक्ति है और बुद्धि का ज्ञान हनुमान जी है।
रावण घमंड का, कुभंकर्ण अहंकार, मारीच लालच और मेंघनाद काम का प्रतीक है. मंथरा कुटिलता, शूर्पनखा काम और ताडका क्रोध है।
चूँकि काम क्रोध कुटिलता ने संसार को वश में कर रखा है इसलिए प्रभु राम ने सबसे पहले क्रोध यानि ताडका का वध ठीक वैसे ही किया जैसे भगवान् कृष्ण ने पूतना का किया था।
नाक और कान वासना के उपादान माने गए है, इसलिए प्रभु ने शुपर्नखा के नाक और कान काटे। भगवान् ने अपनी प्राप्ति का मार्ग स्पष्ट रूप से दर्शाया है। उपरोक्त भाव से अगर हम देखे तो पाएंगे कि भगवान् सबसे पहले वैराग्य (लक्ष्मण)को मिले थे।
फिर वो भक्ति (माँ सीता) और सबसे बाद में ज्ञान (भक्त शिरोमणि हनुमानजी) के द्वारा हासिल किये गए थे। जब भक्ति (माँ सीता) ने लालच (मारीच) के छलावे में आ कर वैराग्य (लक्ष्मण) को अपने से दूर किया तो घमंड (रावण) ने आ कर भक्ति की शांति (माँ सीता की छाया) हर ली और उसे ब्रम्हा (भगवान्) से दूर कर दिया।
भगवान् ने चौदह वर्ष के वनवास के द्वारा ये समझाया कि अगर व्यक्ति जवानी में चौदह पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, नाक, आँख, जीभ, चमड़ी), पांच कर्मेन्द्रियाँ (वाक्, पाणी, पाद, पायु, उपस्थ), तथा मन, बुद्धि,चित और अहंकार को वनवासमें रखेगा तभी प्रत्येक मनुष्य अपने अन्दर के घमंड या रावण को मार पायेगा।
रावण की अवस्था में 14 ही वर्ष शेष थे,,प्रश्न उठता है ये बात कैकयी कैसे जानती थी,,,बन्धुओं ये घटना घट तो रही है अयोध्या परन्तु योजना देवलोक की है,,
अजसु पिटारी तासु सिर, गई गिरा मति फेरि।
सरस्वती ने मन्थरा की मति में अपनी योजना की कैसेट फिट कर दी,,उसने कैकयी को वही सब सुनाया समझाया कहने को उकसाया जो सरस्वती को इष्ट था,, , इसके सूत्रधार हैं स्वयं श्रीराम,,वे ही निर्माता निर्देशक तथा अभिनेता हैं,,सूत्रधार उर अन्तरयामी,,,।
मेघनाद को वही मार सकता था जो 14 वर्ष की कठोर साधना सम्पन्न कर सके, जो निद्रा को जीत ले, ब्रह्मचर्य का पालन कर सके, यह कार्य लक्ष्मण द्वारा सम्पन्न हुआ, आप कहेंगे वरदान में लक्ष्मण थे ही नहीं तो इनकी चर्चा क्यों ?
परन्तु भाई राम के बिना लक्ष्मण रह ही नहींसकते,श्रीराम का यश यदि झंडा है तो लक्ष्मण उस झंडा के डंडा हैं,,बिना डंडा के झंडा ,,,,,
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माता कैकयी यथार्थ जानती है,,जो नारी युद्ध भूमि में दशरथ के प्राण बचाने के लिये अपना हाथ रथ के धुरे में लगा सकती है,रथ संचालन की कला मे दक्ष है,,वह राजनैतिक परिस्थितियों से अनजान कैसे रह सकती है।
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मेरे राम का पावन यश चौदहों भुवनों में फैलजाये,,और यह विना तप के रावण वध के सम्भव न था अतः…
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मेरे राम केवल अयोध्या के ही सम्राट् न रह जाये विश्व के समस्त प्राणियों हृहयों के सम्राट बनें, उसके लिये अपनी साधित शोधित इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को पुनश्च तप के द्वारा तदर्थ सिद्ध करें।
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सारी योजना का केन्द्र राक्षस वध है अतः दण्डकारण्य को ही केन्द्र बनाया गया. महाराज अनरण्यक के उस शाप का समय पूर्ण होने में 14 ही वर्ष शेष हैं जो शाप उन्होंने रावण को दिया था कि मेरे वंश का राजकुमार तेरा वध करेगा,,