पौराणिक मान्यताओं की हकीकत चाहे जो हो, लेकिन प्रकृति के आंचल में बसे उत्तराखंड की मनोरम पहाड़ियों पर आकर मन आस्था और विश्वास से भर जाता है. उत्तराखंड की इन दुर्गम और खूबसूरत पहाड़ियों के सीने में संजीवनी सहित कई पौराणिक कथाओं के रहस्य छिपे है.
पहली बार उत्तराखंड सरकार ने द्रोणागिरी इलाके में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए द्रोणागिरी ट्रैक का आयोजन किया. द्रोणागिरी ट्रैक के समय संजीवनी बूटी तक पहुंचने के लिए एक दल ने साथ जोशीमठ से अपनी यात्रा शुरू की.
जोशीमठ से द्रोणागिरी की दूरी तकरीबन 55 किलोमीटर है, जिसमें 13 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी होती है. यही रास्ता चीन की सीमा पर बसे नीति गांव को भी जाता है. यात्रा आगे बढ़ती है रास्ते में पौराणिक महत्व का तपोवन गांव आता है. मान्यता है कि इसी गांव में देवी सती ने हजारों साल तक शिव की आराधना की थी. यहां के पुजारियों से संजीवनी के बारे में कुछ जानकारी कहानियों के रूप में ज्ञात होती है. तपोवन से आगे बढ़ते ही द्रोणागिरी पर्वत की झलक मिलनी शुरू हो जाती है.
त्रेतायुग में भगवान राम के दूत हनुमान के यहाँ कदम पड़े थे और वह उस अमूल्य वस्तु को उठाकर उत्तराखंड से श्रीलंका ले गए, जिसे संजीवनी कहते हैं.
शुक्रवार से शुरू होती है पैदल यात्रा ……….
जोशीमठ से आगे बढ़ने पर रास्ते में कई जगह गर्म पानी के स्रोत मिलते हैं जिनके बारे में मान्यता है कि देवी पार्वती के बालों से निकली पानी की बूंदों से इनकी उत्पत्ति हुई. आगे रास्ते में भोटिया जनजाति के लोगों से होती है. छह महीने ये लोग अपनी भेड़-बकरियों के साथ बद्रीनाथ के पहाड़ों पर रहते हैं और छह महीने मैदानों में रहते हैं. थोड़ा आगे जाने पर जुमा गांव आता है, जहां से द्रोणागिरी की पैदल यात्रा शुरू होती है. धौलीगंगा को पार करने के बाद पैदल रास्ता शुरू हो जाता है.
लगभग तीन किलोमीटर का रास्ता तय करने के बाद पहली मंजिल यानी रुइन्ग गांव आता है.
भारत का अंतिम गांव ……….
द्रोणागिरी पर्वत के उस पार तिब्बत है, इसलिए इस रुइन्ग गांव को इस छोर से भारत का अंतिम गांव भी कहा जाता है. यहां रात का तापमान काफी गिर जाता है. रास्ते में लगभग 13000 फुट की ऊंचाई पर स्थित भोजपत्र के जंगल मिलते हैं. बेहद मनमोहक द्रोणागिरी घाटी में कई रहस्य और रोमांच आज भी प्रकृति की गोद में कलरव करते नजर आते हैं. हर तरफ कीमती जड़ी-बूटियां बिखरी पड़ी हैं. आसपास के मनमोहक वातावरण को देखकर थकान मिट जाती है.
बाएं हाथ से होती है द्रोणागिरी की पूजा ……..
द्रोणागिरी के लोग पर्वत देवता अर्थात् द्रोणागिरी की पूजा बाएं हाथ से करते हैं, क्योंकि पवनपुत्र हनुमान दाएं हाथ से पर्वत उठा कर ले गए थे. यहां एक और रोचक बात देखने को मिलती है. यहां पर्वत देवता की पूजा के लिए कोई मंदिर नहीं है बल्कि द्रोणागिरी पर्वत को ही देवता माना जाता है. सबसे पहले पारम्परिक रीति-रिवाज से द्रोणागिरी पर्वत की पूजा की जाती है. उन्हें विशेष प्रसाद और मदिरा का भोग लगाया गया. इसीलिए द्रोणागिरी पर पर्वतारोहण की मनाही है. लोकमान्यता है कि जो लोग इसकी कोशिश करते हैं वो मौत के मुंह में समा जाते हैं. इतना ही नहीं गांव में किसी की मौत होने पर उसे जलाने की अपेक्षा दफनाया जाता है, इस डर से कि जलाने से जो धुआं उठेगा, उससे संजीवनी बूटी नष्ट हो सकती है.
जड़ी की खोज ……..
यहां के ग्रामीण सिर्फ बर्फ पिघलने की प्रतीक्षा करते हैं ताकि घाटी पर रात को चमचमाने वाली दिव्य औषधियों के उन्हें दर्शन हों. वे दूसरे दिन उठकर उन औषधियों की तलाश में द्रोणागिरी पर्वत की बर्फीली वादियों के नीचे बसे लगभग 500 ग्लेशियरों के 5.5 किमी के दायरे में फैले उस क्षेत्र का भ्रमण करते हैं ताकि मुख्यतः कीड़ा जड़ी ढूंढ पाएं. कीड़ा जड़ी की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रति किलो थोक कीमत 1 करोड़ है जिसे खरीदने लोग द्रोणागिरी जैसे गांव तक पहुंच जाते हैं. इन्हीं ग्लेशियरों से धौली गंगा का उद्गम है. यहीं बागिनी ग्लेशियर, गिर्थी ग्लेशियर, चंगबांग ग्लेशियर, नीति ग्लेशियर निकलते हैं.
पूजा में लड़कियां या औरतें भाग नहीं लेतीं, क्योंकि मान्यता है कि भक्त हनुमान को एक बूढ़ी औरत ने संजीवनी का पता बताया था. सदियों सालों बाद भी द्रोणागिरी के लोगों का अटूट विश्वास है कि यहां पहाड़ों पर संजीवनी बूटी उपस्थित है. द्रोणागिरी के पहाड़ों पर कई तरह की जड़ी-बूटियां हैं. कई जड़ी-बूटियों को यहां के लोग संजीवनी का प्रतीक मानकर अपने घर की चौखटों पर लगाते हैं. संजीवनी द्रोणागिरी पर उपस्थित है. जो बर्फ पड़ने पर सूख जाती है, लेकिन पहाड़ पर चिपकी हुई स्थिति में रहती है. बर्फ पिघलने पर इसको देखा जा सकता है. इनमें जड़ी-बूटियां में ही संजीवनी है. हालांकि वैज्ञानिक आधार पर उसकी पहचान होना बाकी है.