आज किसी ने तार्किक प्रश्न किया की ॐ और हरी ॐ तो ठीक है पर प्रणाम क्यों?
प्रणामोशीलस्य नित्यं वृद्धोपि सेविन:,
तस्य चत्वारि वर्धन्ते, आयु: विद्या यशो बलं।
अर्थात – प्रणाम करने वाले और बुजुर्गों की सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल चार चीजें अपने आप बढ़ जाती हैं।
सीय राममय सब जग जानी,
करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।
बन्दउं सन्त असज्जन चरना,
दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।
मतलब यह कि वह सभी को प्रणाम करने का सन्देश देते हैं। उनके अनुसार सम्पूर्ण संसार में भगवान व्याप्त है, इसलिए सभी को प्रणाम किया जाना चाहिए।
ऐसी मान्यता है कि यदि आप किसी साधक को प्रणाम करते हैं, तो उसकी साधना का फल आपको बिना कोई साधना किए मिल जाता है।
प्रणाम करने से अहंकार भी तिरोहित होता है। अहंकार के तिरोहित होने से परमार्थ की दिशा में कदम आगे बढ़ता है। प्रणाम को निष्काम कर्म के रूप में लिया जाना चाहिए।
वेदों में ईश्वर को प्रणाम करने की व्यवस्था है, यह कोई याचना नहीं, निष्काम कर्म ही है, जो परमार्थ के लिए प्रमुख साधन है।
श्रीरामचरितमानस में कहा गया है,
हरि व्यापक सर्वत्र समाना,
प्रेम ते प्रकट होइ मैं जाना।
ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, जो प्रेम के वशीभूत हो कर प्रकट हो जाता है। इसलिए चेतन ही नहीं, जड़ वस्तुओं को भी प्रणाम किया जाए, तो वह ईश्वर को ही प्रणाम है, क्योंकि कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां ईश्वर नहीं है।
एक बात और, प्रणाम सद्भाव से ही किया जाना चाहिए, भले ही वह मानसिक क्यों न हो।
शास्त्रों में इसके भी उदाहरण मिलते हैं। श्रीरामचरितमानस का सन्दर्भ लें, तो स्वयंवर के मौके पर श्रीराम ने अपने गुरु को मन में ही प्रणाम किया था।
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा,
अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा।
अर्थात – उन्होंने मन-ही-मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष उठा लिया। इस प्रकार प्रणाम के रहस्य को समझ कर उसे जीवन में लागू किया जाए, तो अनेक रहस्यपूर्ण अनुभव होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं।
आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र