प्राण उस डोरी के सामान है जिसके एक सिरे से शरीर और दुसरे सिरे से आत्मा बंधी है इस डोरी के टूटते ही शरीर और आत्मा अलग अलग हो जाते हैं इसको ही मृत्यु कहा जाता है प्राण रुपी डोरी को मजबूती देने से अर्थात प्राणायाम करने से जीवन लम्बा व् ओजस्वी बनता है | प्राण का नियंत्रण मन पर है क्यूंकि सांस को लेना बंद करके मन बैचैन हो उठता है दीर्घ श्वास लेने पर मन शांत हो जाता है तनाव गायब हो जाता है |
मन का नियंत्रण मस्तिष्क पर व मस्तिष्क का नियंत्रण शरीर पर है क्यूंकि मन में स्वादिष्ट पदार्थ खाने की इच्छा पैदा होते ही इस इच्छा के अनुकूल मस्तिष्क जीभ को सन्देश देकर लार का बहना शुरू करता है, इसका अर्थ है मन की इच्छा से मस्तिष्क कार्य करता है और मस्तिष्क के निर्देश पर शरीर , स्पस्ट है की अगर प्राण को लयबद्ध कर लिया जाए तो मन, मस्तिस्क और शरीर ही नहीं जीवन को भी लयबद्ध किया जा सकता है इसी अभ्यास का नाम प्राणायाम है | इसी लिए योग ग्रंथों में प्राण को परमौशाधि कहा है | प्राणों के अभ्यास को प्राणायाम मन के अभ्यास को ध्यान मस्तिष्क के अभ्यास को अध्यन, वाद विवाद, चिंतन आदि व् शरीर के अभ्यास को व्यायाम कहा गया है | इसमें प्राणायाम सर्वोच्च शक्तिशाली अभ्यास है जिसके द्वारा बल पूर्वक ध्यान को एकाग्र किया जा सकता है, एकाग्र ध्यान को आत्मा पर लगाने से आत्मा अपने में स्थित ज्ञान(वेद) को प्रकट कर देती है जिसको आत्मसाक्षात्कार कहा गया है यहाँ यह ध्यान देने योग्य है की आत्मा संसार के समस्त ज्ञान, शक्ति, आनंद का स्रोत है, क्यूंकि वो परमात्मा का अंश है और उसके गुण, धर्म, शक्ति परमात्मा के सामान हैं | आत्मा को जानने का प्रयास ही आध्यात्म(अध्याय आत्म का ) है | अपनि आत्मा पर ध्यान की स्थिरता को ही “स्वस्थ यानी स्व में स्थित ” कहा गया है और आत्मा पर ध्यान लगाने का प्रयास ही स्वाध्याय(स्व: +ध्याय) है |प्राय: शरीर के निरोग होने के लिए स्वस्थ शब्द का प्रयोग होता है जबकि निरोगी होने के लिए “आरोग्य “ शब्द ज्यादा उचित है और ये स्वस्थ होने के प्रयास में पहली उपलब्धि है, जो स्वस्थ होने से पूर्व ही प्राप्त होना सुनिश्चित है | प्राचीन काल में भारत में अनेक ऋषि मुनिजन इस प्राण विद्या से ही दीर्घ आयु प्राप्त करते थे और सेकड़ों वर्षों तक रोग रहित होकर जीते थे और आत्मा के साक्षात्कार से अतीन्द्रिय शक्तिओं एवं ज्ञान के स्वामी भी बन जाते थे जो आजकल चमत्कार समझी जाती हैं | आध्यात्म भारतीय शिक्षा पद्दति है जिससे अयोग्य को योग्य बनाया जाता है गुरुकुल वह संस्थान है जिसमे ये कार्यरत है । पाश्चात्य शिक्षण पद्दति केवल योग्य की शिक्षा करने में सक्षम है आध्यात्म विद्या किसी को भी योग्य बनाने में सक्षम है ।
हमारा शरीर अनंत कोशिकाओं से मिल कर बना है प्रत्येक कोशिका में उर्जा के उत्पादन के लिए माईटोकोंड्रिय नामक केंद्र है जिसमे ओक्सीजेन और इंधन(खाद्य पदार्थों से प्राप्त रस) के संयोग से उर्जा का उत्पादन होता है यह उर्जा शरीर के विब्भिन्न अंगों के सुचारू कार्य करने का कारण है |यदि हम श्वास गहरा न लेकर छोटा लेने लगते हैं तो शरीर की प्रत्येक कोशिका को ओक्सीजेन की कमी हो जायेगी और उनसे निर्मित अंग विशेष अपना कार्य पूर्ण कुशलता से करने में अक्षम हो जायेंगे या फ़ैल हो जायेंगे जिससे शरीर में रोग की उत्पत्ति होगी ऐसा न हो इसके लिए हम श्वास को दीर्घ लेने और सम्पूर्ण छोड़ने की प्रक्रिया का अभ्यास करते हैं जिसको योग में भस्त्रिका प्राणायाम कहते हैं, इसका रोज़ सुबह शाम कम से कम ५ मिनट अभ्यास अवश्य करना चाहिए |
हमारे मस्तिष्क के दो खंड हैं एक दायाँ मस्तिष्क और दूसरा बायाँ मस्तिष्क जो की बारी बारी से सक्रीय और सुप्त अवस्था में आते जाते रहते हैं दाई नासिका चलने से बायाँ मस्तिष्क और बाएँ नासिका चलने से दाहिना मस्तिष्क सक्रीय होता है ध्यान की प्रगाढ़ता के लिए दोनों नासिका का सामान चलना आवश्यक है जिससे दोनों मस्तिष्क बराबर सक्रीय हो जाएँ और साधक आत्मा पर ध्यान लगाने में सक्षम हो सके | इस कार्य की सिद्धि के लिए अनुलोम विलोम प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है जिसमे बाएँ नासिका से श्वास को अन्दर खींचकर दाहिनी नासिका से बाहर छोड़ा जाता है फिर दाहिनी नासिका से खींच कर बाएँ नासिका से बाहर छोड़ा जाता है ये एक चक्र है इस प्रकार बार-बार किया जाता है |
आत्मा निराकार है उस पर ध्यान कैसे लगाया जा सकता है इसके लिए योग ग्रंथों में अनेक उपाय बताए हैं उनमे से एक आती जाती श्वास को आँख बंद करके ध्यान से देखना है | ध्यान रहे कहीं से भी ध्यान हटाने का प्रयास नहीं करना है अपितु स्वास प्रश्वास से ध्यान न हटे इसका प्रयास करना है | कुछ भी छोड़ने का प्रयास नहीं करना है श्वास प्रश्वास को पकडे रहने का प्रयास करना है | प्राण रुपी धागे पर ध्यान लगाने से हम कभी शरीर भाव में आते हैं कभी आत्मभाव में धीरे धीरे आत्मभाव प्रगाढ़ होता जाता है और क्रमश: आरोग्य एवं स्वास्थ्य प्राप्त होता है |
डॉ0 विजय शंकर मिश्र