माता-पिता की तीन परिक्रमा से तीनों लोकों की परिक्रमा का पुण्य मिल जाता है, जो पृथ्वी की परिक्रमा से भी बडा है।
गणेश चतुर्थी से पहले प्रस्तुत है गणेश जी के पांच भजन और विस्तृत जानकारी , भक्तो आप सबो से अनुरोध है की अपने मित्रो के साथ शेयर करके सबो को ज्ञान गंगा के धारा से जोड़े।
गणेश जी का जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को हुआ था। इसीलिए हर साल इस दिन गणेश चतुर्थी धूमधाम से मनाई जाती है। विघ्नहर्ता, बुद्धि प्रदाता, लक्ष्मी प्रदाता गणेश को प्रसन्न करने का इससे अच्छा समय दूसरा नहीं है।
कुछ ध्यान रखने योग्य बाते……………………….
* भगवान श्रीगेश को तुलसी दल व तुलसी पत्र नहीं चढ़ाना चाहिए। उन्हें, शुद्ध स्थान से चुनी हुई दूर्वा को धोकर ही चढ़ाना चाहिए।
* श्रीगणेश भगवान को मोदक (लड्डू) अधिक प्रिय होते हैं इसलिए उन्हें देशी घी से बने मोदक का प्रसाद भी चढ़ाना चाहिए।
* श्रीगणेश सहित प्रभु शिव व गौरी, नन्दी, कार्तिकेय सहित सम्पूर्ण शिव परिवार की पूजा षोड़षोपचार विधि से करना चाहिए।
* व्रत व पूजा के समय किसी प्रकार का क्रोध व गुस्सा न करें। यह हानिप्रद सिद्ध हो सकता है।
* श्रीगणेश का ध्यान करते हुए शुद्ध व सात्विक चित्त से प्रसन्न रहना चाहिए।
हिन्दूधर्म में किसी भी शुभकार्य क शुरु करने के पहले गणेशजी की पूजा करना जरुरी माना गया है। चाहे वह किसी भी तरह का कार्य हो। इन्हें कई नामों सें पुकारा जाता है जैसे कि विघ्नहर्ता, गजानन, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लम्बोदर, सुमुख आदि नामों से जाना जाता है। इन नामों के स्मरण करनें मात्र से सभी कष्ट दूर हो जाते है । घर में सुख-शांति आजी है। गणेश जी को प्रसन्न करना बहुत ही आसान है , लेकिन इसके लइए आपको सच्चें मन से गणेश जी की पूजा करनी होगी ।
सबसें पहलें गणेश जी की ही पूजा क्यों की जाती है।
गणपति को विघ्नहर्ता और ऋद्धि-सिद्धी का स्वामी कहा जाता है। इनका स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओं की पूर्ति होती है व विघ्नों का विनाश होता है। वे शीघ्र प्रसन्न होने वाले बुद्धि के अधिष्ठाता और साक्षात् प्रणवरूप है। गणेश का मतलब है गणों का स्वामी। किसी पूजा, आराधना, अनुष्ठान व कार्य में गणेश जी के गण कोई विघ्न-बाधा न पहुंचाएं, इसलिए सर्वप्रथम गणेश-पूजा करके उसकी कृपा प्राप्त की जाती है।
इसके पीछें पौराणिक कथा भी है इसके बारें में विस्तार से पद्मपुराण में बताया गया है। इसके अनुसार सृष्टि के आरंभ में जब यह प्रश्न उठा कि प्रथमपूज्य किसे माना जाए, तो समस्त देवतागण ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने कहा कि जो कोई संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा सबसे पहले कर लेगा, उसे ही प्रथम पूजा पहुंचे। इस पर सभी देवतागण अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर परिक्रमा हेतु चल पडे। चूंकि गणेशजी का वाहन चूहा है और उनका शरीर स्थूल, तो ऐसे में वे परिक्रमा कैसे कर पाते! इस समस्या को सुलझाया देवर्षि नारद ने। नारद ने उन्हें जो उपाय सुझाया, उनके अनुसार गणेशजी ने भूमि पर “राम” नाम लिखकर उसकी सात परिक्रमा की और ब्रह्माजी के पास सबसे पहले पहुंच गए। तब ब्रह्माजी ने उन्हें प्रथमपूज्य बताया, क्योंकि “राम” नाम साक्षात् श्रीराम का स्वरूप है और श्रीराम में ही संपूर्ण ब्रह्मांड निहित है।
गणेश जी को पहलें पूजा जानें को लेकर दूसरी कथा भी शिवपुराण में बताई गई है इसके अनुसार एक बार समस्त देवता भगवान शंकर के पास यह समस्या लेकर पहुंचे कि किस देव को उनका मुखिया चुना जाए। भगवान शिव ने यह प्रस्ताव रखा कि जो भी पहले पृथ्वी की तीन बार परिक्रमा करके कैलाश लौटेगा, वहीं अग्रपूजा के योग्य होगा और उसे ही देवताओं का स्वामी बनाया जाएगा। चूंकि गणेशजी का वाहन चूहा अत्यंत धीमी गति से चले वाला था, इसलिए अपनी बुद्धि-चातुर्य के कारण उन्होंने अपने पिता शिव और माता पार्वती की ही तीन परिक्रमा पूर्ण की और हाथ जोडकर खडे हो गए। शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि तुमसे बढकर संसार में अन्य कोई इतना चतुर नहीं है। माता-पिता की तीन परिक्रमा से तीनों लोकों की परिक्रमा का पुण्य तुम्हें मिल गया, जो पृथ्वी की परिक्रमा से भी बडा है।
इसलिए जो मनुष्य किसी कार्य के शुभारंभ से पहले तुम्हारा पूजन करेगा, उसे कोई बाधा नहीं आएगी। बस, तभी से गणेशजी अग्रपूज्य हो गए।
वाराहपुराण में इसकी एक और कथा है जो इस तरह है। जब देवगणों की प्रार्थना सुनकर महादेव ने उमा की ओर निर्निमेष नेत्रों से देखा, उसकी समय के मुखरूपी से एक परम सुंदर, तेजस्वी कुमार वहां प्रकट हो गया। उसमें ब्रह्मा के सब गुण विद्यमान थे और वह दूसरा रूद्र जैसा ही लगता था। उसके रूप को देखकर पार्वती को क्रोध आ गया और उन्होंने शाप दिया कि हे कुमार! तू हाथी के सिर वाला, लंबे पेट वाला और सांपों के जनेऊ वाला हो जाएगा। इस पर शंकरजी ने क्रोधित होकर अपने शरीर को धुना, तो उनके रोमों से हाथी के सिर वाले, नीले अंजन जैसे रंग वाले, अनेक शस्त्रों को धारण किए हुए इतने विनायक उत्पन्न हुए कि पृथ्वी क्षुब्ध हो उठी, देवगण भी घबरा गए। तब ब्रह्मा ने महादेव से प्रार्थना की, “हे त्रिशूलधारी! आपके मुख से पैदा हुए ये विनायकगण आपके इस पुत्र के वश मे रहें। आप प्रसन्न होकर इस सबकों ऐसा ही वर दें। तब महादेव ने अपने पुत्र से कहा कि तुम्हारे भव, गजास्व, गणेश और विनायक नाम के होंगे। यह सब कू्रर दृष्टि वाले प्रचण्ड विनायक तुम्हारे भृत्य होंगे। यज्ञादि कार्यो में तुम्हारी सबसे पहले पूजा होगी, अन्यथा तुम कार्य के सिद्ध होने मे विघ्न उपस्थित कर दोगे।” इसके अनन्तर देवगणों ने गणेशजी की स्तुति की और शंकर ने उनका अभिषेक किया। एक बार देवताओं ने गोमती के तट पर यज्ञ प्रारंभ किया तो उसमें अनेक विघ्न पडने लगे। यज्ञ संपन्न नहीं हो सका। उदास होकर देवताओं ने ब्रह्मा और विष्णु से इसका कारण पूछा। दयामय चतुरानन ने पता लगाकर बताया कि इस यज्ञ मे श्रीगणेशजी विघ्न उपस्थित कर रहे है। यदि आप लोग विनायक को प्रसन्न कर ले, तब यज्ञ पूर्ण हो जाएगा। विधाता की सलाह से देवताओं ने स्नान कर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक गणेशजी का पूजन किया। विघ्नराज गणेशजी की कृपा से यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ।
पूजन के समय मूर्ति पर सिंदूर लगाएं फिर दूर्वा की 11 जोड़ा चढ़ाए और इन दस नामों को लें-
ऊं गणाधिपाय नमः
ऊं उमापुत्राय नमः
ऊं विघ्ननाशनाय नमः
ऊं विनायकाय नमः
ऊं ईशपुत्राय नमः
ऊं सर्वसिद्धिप्रदाय नमः
ऊं एकदन्ताय नमः
ऊं इभवक्त्राय नमः
ऊं मूषकवाहनाय नमः
ऊं कुमारगुरवे नमः
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥
एक दन्त दयावंत, चार भुजा धारी।
माथे पर तिलक सोहे, मुसे की सवारी॥
पान चढ़े फुल चढ़े, और चढ़े मेवा।
लडुवन का भोग लगे, संत करे सेवा॥
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥
अंधन को आँख देत, कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया॥
सुर श्याम शरण आये, सफल किजे सेवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥
संकटनाशन स्तोत्र
प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्र विनायकम् ।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यायुष्कामार्थसिद्धये ॥१॥
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् ।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ॥२॥
लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च ।
सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्ण तथाष्टमम् ॥३॥
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ॥४॥
द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिध्दीकर प्रभो ॥५॥
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम् ॥६॥
जपेद् गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत् ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥७॥
अष्टाभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् ।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥८॥
अब कुछ मंत्रो के साथ गणेश जी का ध्यान करे। ….
1. ऊँ वक्रतुण्ड़ महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरू मे देव, सर्व कार्येषु सर्वदा।।
2. गजाननं भूतगणादि सेवितं
कपित्थ जम्बूफलसार भक्षितम्
उमासुतं शोक विनाशकारणं
नमामि विघ्नेश्वर पादपङ्कजम् ॥
3. अगजानन पद्मार्कं गजाननं अहर्निशम् ।
अनेकदंतं भक्तानां एकदन्तं उपास्महे ॥
4. शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥
- डॉ0 विजय शंकर मिश्र