शबरी माताको भगवान् श्रीराम नव प्रकारसे भक्तिका वर्णन करते हुए कहते हैं –
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मनमें धारण कर। पहली भक्ति है संतोंका सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा-प्रसंगमें प्रेम।। (यहाँ संतों के गुण एवं आचरण से युक्त लोगों का ही संग करनेके लिये ही कहा गया है और इस मायिक शरीरसे आस्था हटाकर सत्यस्वरूप आत्मामें दृढ़ रूपसे स्थित हो जाना ही सत्संग करना कहा गया है)
दो०-गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरुके चरणकमलोंकी सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुणसमूहोंका गान करे।। (यहाँ उनके गुणसमूहों का गान करने के लिये उनके स्वरूप को जानना आवश्यक है, तभी तो गुणसमूहों का गान करना भी संभव हो सकेगा)
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
मेरे (राम) मन्त्रका जाप [यहाँ भी मन्त्र का अर्थ मन्त्रणा करना है अर्थात् रामके स्वरूपको जानना है और जाप का अर्थ उस स्वरूपको मानना है] और मुझमें दृढ़ विश्वास – यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदोंमें प्रसिद्ध है(अर्थात् वेदोंके प्रसिद्ध महावाक्यों में दृढ़ स्थिति होना ही है)। छठी भक्ति है इन्द्रियोंका निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्योंसे वैराग्य और निरंतर संत पुरुषोंके धर्म (आचरण) में लगे रहना।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।।
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
सातवीं भक्ति है जगत् भरको समभावसे मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना (अर्थात् इस संसारके चराचर समस्त शरीरोंको अथवा आकारों को मायिक समझना और इन सभी शरीरों में इनके आधार रूप एक परम आत्मा को ही देखना) और संतोंको मुझसे भी अधिक करके मानना (अर्थात् संतोंके गुण व आचरणों से युक्त पुरुष को अपनी आत्मासे भी अधिक मानना)। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाय उसीमें संतोष करना और स्वप्नमें भी पराये दोषोंको न देखना।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदयमें मेरा भरोसा रखना (अर्थात् हृदयमें अपने आपको शरीर न मानकर आत्मा मानने का निश्चय कर लेना) और किसी भी अवस्थामें हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना (अर्थात् जब हम अपने आपको शरीर ही नहीं मानेंगे तभी हर्ष-विषाद आदिसे बच पायेंगे)। इन नवोंमेंसे जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो -।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई।।
हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझमें तो सभी प्रकारकी भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियोंको भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है।।
जय जय श्री राम