श्रीभगवान् के प्रेमकी प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ होनेपर भी भगवत्कृपासे उसीको हो सकती है और सहज ही हो सकती है, जो वास्तवमें उसे चाहता है। चाहता वही है, जो प्रेमके मूल्यमें सर्वस्व अर्पण करनेको तैयार है—यद्यपि भगवत्प्रेम किसी कीमतपर नहीं मिलता; क्योंकि वह अमूल्य है।
‘कैवल्य’ की कीमत भी उसे खरीदनेके लिये पर्याप्त नहीं है। यों कहना चाहिये कि भगवत्प्रेम खरीदा ही नहीं जा सकता। वह उसीको मिलता है, जिसको कृपा करके भगवान् देते हैं और देते उसको हैं जो सर्वस्व उनके चरणोंपर न्यौछावर करके भी अपनेको प्रेमका अपात्र मानता है और पल-पलमें प्रेमास्पद प्रभुके प्रेमपर मुग्ध होता रहता है। प्रेम न तो किसी भी उपायसे मिलता है और न उसके लिये समयकी ही शर्त है। प्रेमके मार्गमें किसी भी शर्तके लिये गुंजाइश नहीं है। यहाँ तो बिना शर्तका समर्पण होता है। सब कुछ दे डाले, तन-मन अर्पण कर दे। मुरलीकी भाँति हृदयको शून्य कर दे और बदलेमें कुछ भी न चाहे। चाहे तो यही चाहे कि ‘इस शून्य हृदयका भी उस प्रेमास्पदको पता न लग जाय; क्योंकि शून्य होनेपर भी यह प्रेमके योग्य नहीं है। उसका पवित्र प्रेम यहाँ आयगा, इस हृदयमें उसका प्रवेश होगा तो इस प्रेमकी प्रतिष्ठा ही घट जायगी। प्रेमके लिये सर्वथा अयोग्य मुझको प्रेम न देनेमें प्रभुके प्रेमकी शोभा है, परन्तु वह परम प्रेमास्पद इतनेपर भी न जाने क्यों मुझसे प्रेम करता है। क्या वह स्वयं अपनी प्रेमप्रतिष्ठाको भूल गया है, जो मुझ सरीखे त्यागकी स्मृति रखनेवाले त्यागाभिमानियोंकी ओर निरन्तर प्रेमदृष्टिसे देखता है और मुझमें भी प्रेमका अस्तित्व मानता है।’
स्वाभाविक ही समर्पणके पश्चात् जब इस प्रकारका भाव होता है, तब भगवान् के प्रेमका पवित्र प्रादुर्भाव हृदयमें होता है। प्रेम तो प्रत्येक जीवके अन्तरमें भगवान् का दिया हुआ है ही, वह विषयानुरागके दृढ़ और मोटे आच्छादनसे आवृत है–विषयासक्ति, ममता और अहंकारके काले पर्देसे ढका है। इस आवरण और आच्छादनके हटते ही वह निर्मल और पवित्र रूपमें प्रकट हो जाता है। यह प्राकट्य ही प्रेमका उदय है। अतएव जबतक विषयासक्ति, ममता और अहंकार दूर न हों, तबतक भगवान् के गुण-महात्म्य, सौन्दर्य-माधुर्य, कारुण्य आदिके श्रवण-मननसे विषयासक्तिको, परम आत्मीयभावके निरन्तर अनुचिन्तन और निश्चयसे विषय-ममत्वको और शरणागतिके भावके अहंकारको हटाते और मिटाते रहना चाहिये। साथ ही भगवच्चिन्तनका सतत अभ्यास करना चाहिये। प्रेम कितने दिनमें मिल सकेगा, इस बातकी चिन्ता छोड़कर उनका निरन्तर चिन्तन कैसे होता रहे—इसीकी चिन्ता करनी चाहिये। नाम-जप, गुणानुवाद, श्रवण-मनन, स्वरूपका ध्यान—ये सभी इसमें सहायक हैं। परन्तु निर्भरताका भाव बहुत अधिक सहायक होता है। निर्भरताका अर्थ प्रेमप्राप्तिकी उत्कण्ठाका ह्रास नहीं है। उत्कण्ठा बढ़ती रहे, भगवान् के प्रेमके लिये प्राण तड़पते रहें, हृदयमें विरहाग्निकी ज्वाला धधक उठे; परन्तु साधन एकमात्र निर्भरता हो। अपने पुरुषार्थका बल कुछ भी न रहे। प्राणोंकी आकुल तड़प, हृदयकी प्रदीप्त अग्नि ही निरन्तर तड़पाती और जलाती रहे तथा वह तड़पन और ताप ही जीवनका आधार भी रहे। रक्त-मांसको खा डालनेवाली यह आग ही प्राणोंकी रक्षा करती रहे। बड़े सौभाग्यसे इस आगमें जलते हुए, इसी आगको प्राणाधार बनानेका सुअवसर प्राप्त हुआ करता है। उस समय यही चाह हुआ करती है कि प्राणाधार! यह आग कभी न बुझे और उत्तरोत्तर बढ़ती रहकर, मुझे जला-जलाकर सुख पहुँचाती रहे। प्रेमकी प्राप्तिका तो मुझे अधिकार ही नहीं। मेरा तो अधिकार बस जलनेका है। जलता ही रहूँ।
भागवत मधुकर-
बाल संत श्री मणिराम दास जी महाराज
श्री राम हर्षण कुंज श्रीधाम अयोध्या जी
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