रासक्रीड़ा आरंभ हुई, खूब ऊँचे स्वर से गान होने लगा। गोपियाँ प्रेम से नाचने लगीं।
इस प्रकार वहाँ अपूर्व आनन्द छा गया। धीरे-धीरे भगवान की समीपता पाकर गोपियों को यह गर्व हुआ कि भूतल की स्त्रियों में हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
भगवान तो सर्वथा असंग हैं। उनकी जो लीला होती है केवल भक्तों के परितोष के लिए ही होती है।
किन्तु वे भक्तों का गर्व नहीं देख सकते,उन्होंने देखा कि गोपियों को गर्व हो गया, अतः वे उसी समय अंतर्हित हो गये।
अब गोपियों के दुख का पार न रहा। वे पगली सी हो गयीं और उनका मन भगवान में लग गया।
वे भगवान् का ही अभिनय करने लगीं।
एक गोपी दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चलती हुई कहने लगी ‘मैं कृष्ण हूँ, मेरी चाल देखो।’
एक गोपी पूतना बनी और दूसरी उसका स्तनपान करने लगी।
कोई गोपी कालिय सर्प बनी और दूसरी उसके सिर पर चढ़कर कहने लगी ‘अरे दुष्ट सर्प! तू इस कुंड से निकल जा, मैं दुष्टों को दण्ड देने के ले ही उत्पन्न हुआ हूँ।’
कोई गोपी यशोदा बनी तो एक अन्य गोपी माखन चुराने लगी।
उसको यशोदा बनी हुई गोपी ने बाँध दिया, तब वह भयभीत होकर सुंदर नेत्रों ने युक्त अपना मुँह हाथों से ढककर भयकर अनुकरण करने लगी।
कोई गोपी कहने लगी ‘हे व्रजवासियों! तुम पवन और मेघों से भय मत मानो, उनसे तुम्हारी रक्षा करने का उपाय मैंने कर लिया है’।
ऐसा कहकर गोवर्धन पर्वत को उठाने की सी मुद्रा बनाकर उसने एक हाथ से ओढ़ने का वस्त्र फैलाकर ऊपर को उठा लिया।
इस प्रकार वे सब गोपियाँ वृन्दावन में घूमती हुई भगवान को खोजने लगीं।
कभी वृक्षों से पूछतीं ‘हे पीपल! हे पिलखन! हे वट! तुम तो सबसे उन्नत हो, क्या तुमने भगवान को देखा है?’
कभी पुष्पों से पूछतीं ‘हे अशोक! हे चम्पक! हे पुन्नाग! क्या इस मार्ग से जाते हुए कृष्ण को तुमने देखा है?
हे तुलसिके! क्या अपने को धारण करने वाले कृष्ण को तुमने देखा है? तुम तो गोविन्दचरण प्रिया हो।’
जब उनसे कोई उत्तर न मिला तो यह विचारकर कि- यह लता नम्र और परमगुणवती है, उससे पूछने लगीं ‘हे मालति! हे मल्लिके! हे चमेली! हे जूही! तुमने श्रीकृष्ण देखे हैं क्या? वे फूल लेने की इच्छा से हाथ के स्पर्श से तुम्हें प्रसन्न करते हुए कदाचित इधर से गये हों?’
जब कहीं से कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला तो पृथ्वी से पूछने लगीं ‘हे वसुन्धरे! तुमने कौन सा तप किया है जो तुम श्रीकृष्ण के चरणस्पर्श के कारण तृण आदि के रूप में रोमांचित होकर शोभा पा रही हो?
क्या तुम्हारी यह शोभा इसलिए है कि भगवान ने वामनरूप से तुम्हें नापा था या वाराहरूप से तुम्हें आलिंगन किया था इसलिए है?’
पृथ्वी से कोई उत्तर तो न मिला, किन्तु गोपियों ने उस पर भगवान् ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश और यवयुक्त चरणचिह्न देखा।
गोपियाँ उस चरणधूलि को भगवान् के प्राप्त्यर्थ अपने शरीर में यह कहकर मलने लगीं कि ‘अहो! यह गोविन्द के चरणकमलों की धूलि अति धन्य है।
जिसको सकल दोषों के दूर होने के निमित्त ब्रह्मा, शिव और लक्ष्मी अपने मस्तक पर धारण करती हैं।’
फिर उन्हीं चिह्नों को खोजती-खोजती आगे बढ़ीं, तो क्या देखती हैं कि एक अन्य चरणचिह्न भी है।
यह देखकर मन में तर्क करने लगीं कि यह चिह्न किसी परम भाग्यवती सखी का है।
अतः वे स्पर्धायुक्त कहने लगीं कि यह सखी एकान्त में भगवदानन्द प्राप्त कर रही है।
आगे बढ़ीं तो उन्हें वह दूसरा चरणचिह्न दिखायी न दिया।
तब कहने लगीं ‘मालूम होता है उस सखी को भी अभिमान हुआ होगा कि ‘मैं ही धन्य हूँ’ और उसी आवेश में भगवान से कहा होगा ‘हे कृष्ण! मैं हार गयी हूँ, आगे नहीं चल सकती, अतः जहाँ तुम्हें जाना हो मुझे अपने कन्दे पर चढ़ाकर ले चलो।’
तब वे गोपियाँ विचार करने लगीं कि सर्वदर्पहारी भगवान् उस गोपी को वहीं छोड़कर अंतर्धान हो गये होंगे।
बात भी यही निकली थोड़ी दूर पर वह गोपी भी इन्हें मिल गयी।
तब ये सब गोपियाँ भगवान् को फिर वन के कोने-कोने में ढूँढ़ने लगीं और इनका अभिमान सर्वथा नष्ट हो गया।
इस प्रकार जिनका अंतःकरण भगवदाकार हो गया है।
भगवान् की ही वार्ता करने वाली भगवान् की ही लीलाओं का अनुकरण करने वाली तथा भगवान् के गुणों का गान करने वाली उन गोपियों को उस समय अपने घर का भी स्मरण नहीं रहा और वे फिर उसी यमुना की रेती में आकर भगवान् का गुणगान करने लगीं जिसे गोपी गीत कहा जाता है ———–
1-जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते।
हे प्राणप्रिय! (आपकी जय हो) आपके जन्म से यह व्रज उत्कर्ष को प्राप्त हो गया है। इसलिए अनपायिनी लक्ष्मी सदा व्रज को अलंकृत कर रही है। यहाँ आपकी दासी हम गोपियाँ आपकी प्राप्ति के लिए ही किसी प्रकार प्राणों को धारण करके दसों दिशाओं में आपको खोजती फिरती हैं; इस कारण आप हमें प्रत्यक्ष दर्शन दें।
2-शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः।।
यहाँ यह समझना चाहिए कि एक-एक श्लोक अलग-अलग गोपी की उक्ति का है। शंका- खोजने का क्या प्रयोजन?
समाधान- हे श्रेष्ठ वरदानी! आपकी दृष्टि शरद्-ऋतु में इस पुष्पकरिणी में खिले हुए कमल की भीतरी शोभा से भी सुंदर है। हे सुरतनाथ! ऐसी दृष्टि से हम बिना मूल्य की दासियों को मारना क्या इस संसार में वध नहीं कहा जाता? क्या यह ही मारना वध कहा जाता है? इस कारण दृष्टि से हरे गये प्राणों को लौटा देने के लिए अब हमको दर्शन दीजिए। अपने को अशुल्क दासी कहने का यह भाव है कि आपकी प्राप्ति को छोड़कर हम और कुछ धनादि मूल्य चाहती ही नहीं है।।
3-विषजलाप्ययाद्वयाल राक्षसाद्वर्षमारुता द्वैद्युतानलात्।
वृषमयात्मजाद्विश्वतो भयादृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः।।
हे श्रेष्ठ! कालियह्रद के विषैले जल के पीने से होने वाली मृत्यु से, अघासुर दैत्य से, इंद्र द्वारा की गयी वर्षा से, वायु से, बिजली की अग्नि से, वृषभरूपी अरिष्टासुर से, व्योमासुर से एवं सब प्रकार के भय से आपने बार-बार हमारी रक्षा की है इस समय हम विरह वेदना से पीड़ित हो रही हैं, अब क्यों हमारी उपेक्षा कर रहे हैं?।।
4-न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतां कुले।।
हे सखे! आप केवल यशोदानन्दन ही नहीं है किन्तु सब प्राणियों की बुद्धि के साक्षी हैं (इस कारण हमारे दुःख को भी आप जानते हैं) ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर आप संसार की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं तो हमारी रक्षा क्यों नहीं करते?।
5-विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्।।
अब, चार श्लोकों से चार प्रार्थनाओं का संपादन करने को कहती हैं….
हे यदुवंशावतंस! हे कान्त! (जन्ममरणरूपी संसार से) भयभीत होकर, आपके चरणों की शरण में आये हुए प्राणियों को अभय देने वाले, संपूर्ण मनः कामनाओं को पूर्ण करने वाले और लक्ष्मी जी का पाणिग्रहण करने वाले अपने कर कमल को आप हमारे मस्तक पर रखिये।।
6-व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय।।
हे व्रजजनदुःखनाशक! हे वीर! आपका हास्य भक्तों के गर्व को नष्ट करने वाला है अतः हमारे गर्व का नाश हो चुका, अब क्यों अन्तर्हित होते हैं?हे सखे! हम आपकी दासियाँ हैं आप हमें स्वीकार करें और हमें अपने कमलसदृश सुंदर मुख को दिखलावें।।
7-प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्।
फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्।।
हे भगवान! शरण में आये हुए प्राणियो के समानरूप से पाप का नाश करने वाले, कृपा से तृण चरने वाले पशुओं के पीछे चलने वाले, सौभाग्य फल देने से श्री के निवासभूत, अनुपम पराक्रम से कालिय नाग की फणों में स्थापित अपने चरणारविन्द को हमारे वक्षःस्थल पर रखिये और हमारी कामाग्नि का उच्छेद कीजिए।।
8-मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाप्याययस्व नः।।
अब उच्छेद का प्रकार बतलाती हैं- हे कमललोचन! हे वीर! मनोहर वचनों से युक्त, अति मधुर, ज्ञानियों को भी प्रिय लगने वाली आपकी वाणी से मोह को प्राप्त हुई अपनी आज्ञाकारिणी दासियों को आप अपने अधरामृत से जीवित कीजिए।।
9-तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः।।
आपके विरह से हमारा मरण तो निश्चित ही था, किन्तु आपकी कथारूप अमृत पिलाने वाले धर्मात्मा पुरुषों ने अब तक हमको मरने से वंचित रखा है। अब दर्शन दीजिए। आपकी कथा अमृत है, क्योंकि वह सन्तप्त प्राणियो को जीवन देती है। ब्रह्मज्ञानियों ने भी देवभोग्य अमृत को तुच्छ समझकर उसकी प्रशंसा की है। वह सब पापों को हरने वाली है अर्थात् काम्य कर्म का निरास करने वाली है श्रवणमात्र से मंगलकारिणी और अत्यंत शान्त है, ऐसे तुम्हारे कथामृत को विस्तार के साथ जो पुरुष गाते हैं उन्होंने पूर्वजन्म में बहुत दान किये हैं वे बड़े पुण्यात्मा हैं।।
10-प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमंगलम्।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि।।
कथा सुनने से ही संतुष्ट हो तो मेरे दर्शन की अभिलाषा क्यों करती हो ऐसा यदि कहो तो हे मायावी प्रियतम! ध्यानमात्र से ही मंगलकारी तुम्हारा सुंदर हास्य, प्रेमपूर्वक कटाक्षों से किया गया अवलोकन, -विहार और एकान्त में होने वाले मनोहर संकेत ये सब हमारे मन को क्षुब्ध कर रहे हैं, अतः कथामात्र से हमारी शान्ति नहीं होगी।।
11-चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्नलिनसुंदर नाथ ते पदम्।
शिलतृणांकरेः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति।।
इस श्लोक का और अगले श्लोक का यह भाव है कि गोपी कहती है कि हम तो आपके ऊपर अतिप्रेम होने से आर्द्रचित्त हो रही हैं और न जाने आप हमसे क्यों कपट कर रहे हैं, हे नाथ! हे कान्त! जब आप गौ चराते हुए व्रज से बाहर जाते हैं, तब आपके कमल सदृश सुंदर चरण कंकड़, पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े, तृण और अहंकारों से दुःख पाते हैं, ऐसा सोचकर हमारा हृदय व्यथित हो उठता है।।
12-दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि।।
हे वीर! सायंकाल के समय काले घुँघराले केश से आवृत और गोधूलि से व्याप्त अतएव भ्रमरपंक्ति और पराग से आवृत कमल के सदृश अपने मुखारविन्द को हमें बार-बार दिखाते हुए आप हमारे मन में अपने संपर्क की इच्छा प्रदीप्त करते हैं अर्थात् सायुज्य भक्ति तथा संग नहीं देते हैं, इस कारण कपटी हैं।।
13-प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि।
चरणपंकजं शन्तमं चे ते रमण न स्तनेष्वर्पयाधिहन्।।
इस अग्रिम श्लोक का भाव यह है कि गोपियाँ प्रार्थना करती हैं कि आप कपट त्यागकर हम पर कृपा करें हे मानसिक व्यवथाओ को दूर करने वाले! हे रमण! शरमागतों को इष्टफल देने वाले ब्रह्मा जी से पूजित, पृथ्वी के भूषण, ध्यानमात्र से आपत्तियों के निवर्तक और सेवा करते समय भी अति आनन्द देने वाले अपने चरण कमलों को हमारे हृदय पर रखो, (यहाँ पर भगवान् का संबोधन आधिहन् है। आधिका अर्थ है- मानसिक चिन्ता)।।
14-सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्।।
हे वीर! आप हमें अपना अधरामृत अर्पण करें जो कि सुरतवर्द्धन अर्थात् प्राप्त होने पर अधिकाधिक इच्छा बढ़ाने वाला और शोक का नाशक है, बजायी जाती हुई मुरली जिसका भलीभाँति रस ले रही है तथा जो मनुष्यों की सार्वभौम आदि सुखों में होने वाली इच्छा को भुला देने वाला है।।
15-अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामश्यताम्।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम्।।
गोपियाँ इस अग्रिम श्लोक में करुण वाणी से कहती हैं कि क्षणभर आपके न दीखने से दुःख और दीखने से सुख का अनुभव करके हम सब कुछ छोड़कर यतियों के समान आपके पास आयी हैं, आप हमें क्यों छोड़ते हैं?जब आप प्रातः काल वन को जाते हैं तो आपके दर्शन के बिना हमको आधा क्षण भी एक युग के समान प्रतीत होता है, अर्थात उतने समय तक बड़ा दुख प्रतीत होता है जब संध्या समय आप लौटकर आते हैं, तो घुँघराले केशों से शोभायमान आपके सुंदर मुख के निरंतर दर्शन करती हुई हम लोगों की आँखों के पलक बनाने वाले ब्रह्मा जी सचमुच हृदयशून्य मालूम पड़ते हैं, उन्होंने पलक बनाकर अपनी जड़ता ही दिखलायी। उतने समय तक हम आपके दर्शन सुख से वंचित रहती हैं।।
16-पतिसुतान्वय भ्रातृबान्धवानतिविलंघ्य तेऽन्त्यच्युतागताः।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निश।।
हे अच्युत! गान के ताल और स्वर को जानने वाले या हमारे आगमने के तात्पर्य को जानने वाले आपके द्वारा गाये हुए गीतों से मोहित होकर हम अपने पति, पुत्र, कुल, भ्राता और बांधवों का त्याग कर आपके समीप आयी है। हे शठ! आपके सिवा दूसरा कौन पुरुष रात्रि में स्त्रियों को त्याग सकता है?।।
17-रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्।
बृहदुरःश्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः।।
अब अग्रिम श्लोक से कहती है कि आपके द्वारा त्यागी हुई हम अबलाओं के हृदय में आपके प्रथम दर्शन से जो रोग उत्पन्न हो गया है उसकी आप पुनर्मिलन के द्वारा ही चिकित्सा कीजिए,आपके वासना- प्रवर्तक एकान्त संकेत, हास्ययुक्त मुख, प्रेमयुक्त अवलोकन और अति विशाल तथा लक्ष्मी का गृहरूप वक्षःस्थल देखकर हमें आपके सामीप्य की बड़ी इच्छा होती है और मन बारंबार मोहित होता है।।
18-व्रजवनौकसां व्यक्तिरंग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमंगलम्।
त्यज मनाक्च नस्त्वत्सपृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्।।
हे अंग! हे प्रभो! आपका अवतार सभी व्रजवासी लोगों का दुख दूर करन के लिए और संसार के कल्याण के लिए हुआ है। अतः मन से आपकी इच्छा करने वाली हम अबलाओं के हृदयरोग को नष्ट करने वाली अत्यंत गुप्त औषदि- जो केवल आपके ही पास है, उसे हमें उदारतापूर्वक दे दीजिए।।
19-यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद्वय्थते न किं स्वि-
त्कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्मवदायुषां नः।।
अब अति प्रेम से व्याकुल होकर कातर स्वर में कहती हैं- हे प्रिय! आपके जिन कोमल चरणों को हम अपने कठिन वक्षःस्थल में धीरे-धीरे रखती थीं, उस चरणकमल से आप इस समय वन में फिर रहे हैं, तो वह पदकमल मार्ग के कंकड़ों और काँटों से क्या क्लेश नहीं पाता होगा? अवश्य पाता होगा, ऐसा जानकर आप ही जिनके जीवन हैं, ऐसी हम गोपियों की बुद्धि मोहित हो रही है।।
प्रेमावतार पञ्चरसाचार्य श्रीमद् स्वामी अनंत श्री विभूषित श्रीमद् स्वामी श्री राम हर्षणदेवाचार्य जी महाराज श्री के लाडले कृपा पात्र-
भागवत मधुकर बाल संत श्री मणिराम दास जी
महराज श्री धाम अयोध्या जी
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