वो तिकड़ी जिसकी नाराज़गी मात्र से डगमगा गया कांग्रेस का आत्मविश्वास |
राजनीति में जितना उम्रदराज़ खिलाडियों का महत्व है उतनी ही अहमियत युवा खिलाड़ी भी रखते हैं। अनुभव और उत्साह ही सियासत के आधार हैं। और इस समीकरण का असर कई मौक़ों पर देखा जा चुका है। फिलहाल सियासी संकट झेल रही देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में कई मौक़े पर वरिष्ठ नेताओं के अनुभव और युवा नेताओं की सोच ने एक साथ आकर जीत की इबारत लिखी है। लेकिन अब हालात पहले की तुलना में बहुत बदल गये हैं। जीत की कहानियां अब नाक़ामियों में बदल रही हैं। कई ऐसे मौक़े आए जब कांग्रेस का आत्मविश्वास सतह पर आ गया। परिवार केंद्रित पार्टी होने, परिवार का आत्ममोह और अंदरूनी कलह के चलते क़ाबिल युवा नेताओं को कोई खास तवज्जो ना मिलने से नाराज़गी अब सियासी पटल पर तेज़ी से नज़र आने लगी है।
पायलट ने बजाया बगावत का बिगुल
अब राजस्थान को ही देख लें, सचिन पायलट इन दिनों राजनीति के सबसे चर्चित चेहरे हैं। कांग्रेस के युवा नेताओं में एक अहम चेहरे सचिन पायलट बेहद कम उम्र (26 साल) में ही कांग्रेस पार्टी से सांसद चुने गए। पैंतीस की उम्र में केंद्रीय कैबिनेट में भी जगह बना ली। साल 2014 में 37 साल की अवस्था में राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी की बागडोर उनके हाथ सौंप दी गयी। वहीं सचिन पायलट ने अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया भी। सचिन ने सूबे में पार्टी को और मजबूती से आगे बढ़ाने का काम किया।
दरअसल ये वो समय था जब सूबे के वर्तमान सीएम अशोक गहलोत केंद्र की राजनीति में राहुल गांधी का साथ दे रहे थे। सचिन पायलट ने कड़ी मेहनत से सूबे में उस वक़्त की मौजूदा वसुंधरा राजे सरकार की नाक़ामियों को बेपर्दा करके रख दिया। उनकी ये मेहनत रंग भी लाई।वक़्त साल 2018 का आया। सचिन पायलट की मेहनत से कांग्रेस ने सूबे के विधानसभा चुनाव में जीत का स्वाद भी चखा। पायलट की कड़ी मेहनत के चलते बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा।
हालांकि जब वक़्त सूबे का सरताज चुनने का आया तो सचिन पायलट की कड़ी मेहनत की बजाय पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत के अनुभव को अहमियत दी गयी। तमाम विवाद और मान मनौव्वल के बाद पायलट ने टूटे मन से डिप्टी सीएम पद के लिये हामी तो भर दी लेकिन इस घटना के बाद सूबे के सीएम और डिप्टी सीएम में कभी तालमेल नही बन पाया। अब मौजूदा हालात ये हैं कि सचिन पायलट ने बगावत का बिगुल बजा दिया है जिससे गहलोत सरकार के लिये बड़ा सियासी संकट खड़ा हो गया है।
सिंधिया ने भी पलटा था मध्य प्रदेश का सियासी पासा
साल 2020 के ही मार्च महीने में जब समूचा देश होली का त्यौहार मनाने में मगन था, वो वक़्त कांग्रेस के लिये काला वक़्त साबित हो गया। राष्ट्रीय राजनीति के साथ मध्य प्रदेश की सियासत में धमक रखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कुछ ऐसा सियासी पासा फेंका कि सूबे की सियासी शक़्ल ही बदल गयी और कांग्रेस सूबे में अपनी सरकार से हाथ धो बैठी।
आपको बता दें कि साल 2001 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस का हाथ थामा था। लोकसभा क्षेत्र गुना से लगातार से जीतते रहे। वर्ष 2007 में यूपीए सरकार में सिंधिया केन्द्रीय मंत्री के पद पर काबिज़ हुए। लेकिन एक ऐसा वक़्त आया जब कांग्रेस के लिये सियासी मुश्क़िलों का अम्बार लग गया। साल 2018 में एमपी विधानसभा चुनाव में विजय के बाद कांग्रेस पार्टी आलाकमान ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री का ताज पहना दिया जिससे ज्योतिरादित्य सिंधिया की उम्मीद शीशे की तरह चकनाचूर हो गयी। परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी को सपोर्ट कर कमलनाथ सरकार को करंट का झटका दे दिया। सरकार बनने के महज़ 15 महीने के भीतर ही गिरा दी गयी।
हिमंता बिस्वा की नाराज़गी से ढहा था नॉर्थ ईस्ट में कांग्रेस का सियासी क़िला
किसी वक़्त कांग्रेस पार्टी के युवा चेहरा रहे हिमंता बिस्वा ने कांग्रेस को ऐसा डेंट लगाया कि नॉर्थ ईस्ट के सूबों में कांग्रेस के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह सा लग गया। दरअसल हिमन्ता विस्वा की पहुंच केंद्र की राजनीति में बैठे कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व तक थी। साल 1996 से 2015 तक कांग्रेस का हिस्सा रहे हिमन्ता बिस्वा ने असम में कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में कैबिनेट मंत्री के तौर पर भी काम किया। लेकिन अचानक बिस्वा की पार्टी नेतृत्व से अनबन कुछ इस क़दर बढ़ी कि उन्होने पार्टी से अपना कई साल पुराना नाता तोड़ लिया। उस दौरान उन्होने राहुल गांधी पर कई आरोप भी लगाए। वहीं पार्टी से नाराज़ हिमंता बिस्वा ने बीजेपी के साथ जाने का फैसला किया।
साल 2016 के असम विधानसभा चुनाव लड़कर कैबिनेट मंत्री के पद पर क़ाबिज़ हुए। गौरतलब है कि बीजेपी नेतृत्व ने हिमंता बिस्वा को नेडा यानि नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस का संयोजक सुनिश्चित किया। आपको बता दें कि नेडा, नॉर्थ ईस्ट भारत के कई रीज़नल पार्टी का अलायन्स है। इतना ही नहीं, हिमंता बिस्वा ही वही शख्स हैं जो नॉर्थ ईस्ट में बीजेपी के लिए संकटमोचक साबित हुए। नॉर्थ ईस्ट की सियासत में बीजेपी का अस्तित्व शून्य पर था। लेकिन देखते ही देखते त्रिपुरा, असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में भगवा लहरा इन राज्यों को कांग्रेस मुक्त बना दिया। इसके साथ ही बीजेपी, नॉर्थ ईस्ट के बाकी राज्यों की सरकार में अपनी पैंठ बढ़ाने लगी। नॉर्थ ईस्ट में हिमंता बिस्वा सरमा ने बीजेपी को फर्श से अर्श तक पहुंचाने का काम किया।
ऐसे में साफ है कि जब जब कांग्रेस के युवा नेताओं ने बगावत की तब तब सियासत के महारथियों को भी धूल फांकनी पड़ी। ऐसे में अब ज़रूरत है कांग्रेस को अपनी राजनीतिक शैली में बदलाव लाने की। अगर अब भी कांग्रेस अपने काबिल युवा नेताओं को नज़रन्दाज़ करती रही, तो भविष्य में इसके परिणाम और भी गम्भीर हो सकते हैं। ये कहना गलत नही होगा कि देश की सबसे पुरानी पार्टी एक बुरे दौर से गुज़र रही है। एक ही ढर्रे की नीतिगत नाक़ामियों और खराब नेतृत्व के चलते असहज परिस्थितियों से लगातार जूझ रही है।