अयोध्या के ब्रम्हलीन संत स्वामी श्रीरामहर्षण दास जी महाराज, गुरु पूर्णिमा पर विशेष- सदगुरू स्वरूप परिचय
अयोध्या के ब्रम्हलीन उच्च कोटि के भगवत्प्राप्त संत स्वामी श्रीरामहर्षण दास जी महाराज, जिन्हें अयोध्या के संतो में प्रेमावतार, पंचरासचार्य आदि नामों से जाना जाता है।
संसार से निर्लिप्त, सदा श्री सीता राम जी के प्रेम में डूबे, आँखों से आंसू बहाते रहने वाले, विश्व के महान संतों में उच्च स्थान रखने वाले श्री स्वामी जी महाराज “सद्गुरु स्वरूप” का अलौकिक उदाहरण थे। ऐसे दिव्य संत बहोत कम देखने को मिलते हैं या यूँ कहें की बड़े सौभाग्य से ही ऐसे संतों का दर्शन होता है।
सदगुरू कैसा हो – सदगुर कौन हो
सदगुरू वही है जो अपने ज्ञान सूर्य से शिष्य के मोहजनित अज्ञान को दूर करने में समर्थ होता है।
शब्द ब्रह्म और परब्रह्मा का पूर्ण अनुभवी है वही सद्गुरु है। सद्गुरु वही विप्र हो सकता है जो अपने आचार्य का परम भक्त है। जो शास्त्र संत और भगवान में निष्ठावान हैं वही सद्गुरु है। सद्गुरु वही है जो संपूर्ण शास्त्रों का आलोकन करके तदर्थ को अपने में आरोपित कर लिया हो।
सद्गुरु वही है जिसके हृदय गगन में सच्चिदानंद का सूर्य एक रस उदित बना रहता है अर्थात जो ज्ञान स्वरूप हो गया है।
सद्गुरु वही है जिसके हृदय की जड़ चेतनात्मक ग्रंथि भली-भांति छूट गई है।
सद्गुरु वही है जो निर्द्वन्द एवं भावातीत हो गया है।
सद्गुरु वही है जो ममता रूपी मृत्यु का कवल नहीं बनता। सद्गुरु वही है जो अपने आचार्य प्रदत्त मूल मंत्र का भक्त होकर आचार्य परंपरा का विस्तार करता है।
सद्गुरु वही है जो क्षमा दया करुणा और कृपा की मूर्ति हो गया है। सद्गुरु वही है जो भगवत भक्त की भागीरथी में स्वयं निमज्जन करता हुआ अपने शिष्यों को उसमें अवगाहन करने की प्रेरणा देता है।
सद्गुरु वही है जो शिष्य के संसार संबंध को निर्बिज कर ब्रह्म संबंध को पुष्ट करने की क्षमता से युक्त होता है।
सद्गुरु वही जो स्वयं भगवत शरणागति करके शिष्य के कल्याण अर्थ प्रभु से प्रार्थना किया करता है।
सद्गुरु वही है जो शिष्य के अहित एवं अपराध करने पर भी उसके मंगल की कामना किया करता है।
सद्गुरु वही है जो सदस्य पर अपने पुत्र और आत्मा से भी अधिक राग विहीन प्रेम करता है।
सद्गुरु वही है जो शिष्य की परंपरा अपने लिए नहीं बढ़ाता अभी तो भगवान के मंगला अनुशासन के लिए शिष्य बनाता है।
सद्गुरु वही है जो शिष्य के संबंध तोड़ देने पर भी उससे द्वेष न कर उस के कल्याण की कामना करता है।
सद्गुरु वही है जो शिष्य को परम पद पाने की समस्त सामग्री प्रदान कर स्वयं शिष्य के हाथ के नीचे अपना हाथ रखने का सपना नहीं देखता।
सद्गुरु वही है जो समस्त आज्ञापित अर्थों का ज्ञापन शिष्य को कराता है।
सद्गुरु वही है जो शिष्य से स्वाभिमान समर्पित वस्तु को विश समझता है।
सद्गुरु वही है जो अकारण सर्व भूतों का शुहृद होता है।
सद्गुरु वही है जो अपनी वांग्मयी सेवा से सदा प्रसन्न किंतु कर्टित्तवाभिमान से दूर रहता है।
सद्गुरु वही है जो सर्वदा सदाचार से संयुक्त रहकर अपनी रहने से सबको अपनी ओर आकर्षित किए हुए बिना मुख से उपदेश देते हुए सुशिक्षित बनाता रहता है।
सद्गुरु शिष्य के लिए शरीरी के समान कल्याणकारी होता है सद्गुरु वही है जो रहस्य त्रई विद्या का विद्वान है।
सद्गुरु सो जो ब्रह्म मीलावे।
स्वामी श्री रामहर्षणदास जी महाराज इस कलि काल में अवतरित ऐसे ही “सद्गुरु” थे, जो सभी गुणों से युक्त और शिष्य को सहज ही भगवत साक्षातकार कराने में समर्थ थे। वो लोग परम सौभाग्यशाली हैं, जिन्होंने इस कलयुग में उन स्वामी जी को सद्गुरु रूप में प्राप्त किया है।
स्वामी जी के दिव्य दर्शन के लिए विडियो देखें –
“गुरु” कोई “व्यक्ति” नहीं, कोई “शरीर” नहीं, “गुरु” एक “तत्व” है, एक “शक्ति है”।
“गुरु” यदि “शरीर” होता, तो इस छोटी सी “दुनिया” में, एक ही “गुरु” “पर्याप्त” होता।
“गुरु” एक “भाव” है, “गुरु” “श्रद्धा” है।
“गुरु” “समर्पण” है।*
आपका “गुरु: आपके “व्यक्तित्व” का “परिचय” है।
“कब” “कौन”, “कैसे” आपके लिये “गुरु” “साबित” हो, यह आप की “दृष्टि “एवं “मनोभाव “पर निर्भर करता है।
“गुरु” “प्रार्थना” से मिलता है।
“गुरु” “समर्पण” से मिलता है।
“गुरु” “दृष्टा” “भाव” से मिलता है।
“गुरु” “किस्मत: से मिलता है।
और………
“गुरु” “किस्मत” वालों को ही “मिलता” है।।
अस्तु!
आइए इस गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर हम सभी शिष्य मिलकर अपने श्री सदगुरुदेव भगवान का बड़े ही श्रद्धा भक्ति उमंग उत्साह के साथ पूजन करें। श्री सदगुरुदेव भगवान का मंगलानुशासन करें।
सद शिष्य के लक्षण
सद शिष्य का परम धर्म कर्तव्य होता है की श्री सदगुरुदेव भगवान की आज्ञा का सदैव पालन करता रहे।
तन मन धन सब शिष्य का श्री सदगुरुदेव भगवान के लिए होता है।
शिष्य का अपना कुछ नहीं होता है।
शिष्य की प्रत्येक क्रिया श्री सदगुरुदेव भगवान की प्रसन्नता के लिए होती है।
सद् शिष्य सर्व भावेन सद्गुरु के अधीन रहता है।
सद शिष्य स्वाचार्य के देह की चिंता रखता हुआ सेवा पारायण बना रहता है।
सदशिष्य आचार्य कीर्ति के विमल पताके को फहराने के लिए अपने यस विस्तारक आचरण को उच्चतम दंड बना देता है।
सद् शिष्य, देहाभिमान, स्वरूपाभिमान, उपायाभिमान, और अपेया भिमा न से रहित होता है।
|। गुरुकृपा केवलम् |।
प्रेमावतार पंचरसाचार्य श्रीमद् स्वामी श्री राम हर्षण दास जी महाराज श्री के लाडले कृपा पात्र–
श्री सदगुरूद चरणासृत-
मणिराम दास
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