जानें देवशयनी एकादशी व्रत का महत्व एवं पुण्यफल | बाल संत श्री मणिराम दास जी महराज (श्री धाम अयोध्या जी)
देव शयनी एकादशी व्रत ( भगवान विष्णु का शयन काल )
देवशयनी एकादशी मुहूर्त – एकादशी तिथि प्रारम्भ- १ जुलाई २०२० दिन बुधवार, पारण (व्रत तोड़ने का) समय २ जुलाई २०२०, सुबह ५:२७ से ०८:१४ तक।
सनातन धर्म में बताए सभी व्रतों में आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी का व्रत उत्तम माना गया है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करने का विशेष महत्व होता है। देवशयनी एकादशी को हरिशयनी एकादशी और ‘पद्मनाभा’ भी कहते हैं।
मान्यता के अनुसार इसी रात्रि से भगवान का शयन काल आरंभ हो जाता है जिसे चातुर्मास या चौमासा का प्रारंभ कहते हैं।
इस पूरे चार महीने के दौरान कोई भी शुभ काम जैसे शादियां, नामकरण, जनेऊ, ग्रह प्रवेश और मुंडन नहीं होते। चार महीने के अंतराल के बाद देवप्रबोधनी एकादशी(देवोत्थनी एकादशी)के दिन भगवान विष्णु जाग उठते हैं…..इस दिन के बाद से मांगलिक कार्यों की एक बार फिर शुरुआत हो जाती है…..विचार कीजिये की आखिर क्यों भगवान विष्णु चार महीने की निद्रा में चले जाते है ।
इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु “क्षीरसागर” मे शयन करने के लिए चले जाते है ।
पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु शंखासुर को युद्ध कर नष्ट करने के बाद क्लान्त होने के कारण चार महिने की अखण्ड निद्रा ग्रहण किये । वे आठ महिने जाग्रत रहते है और चार महिना अखण्ड निद्रा मे रहते है……पुनः चार महिने के बाद निद्रा का परित्याग करते है ।
“एकादश्यां तु शुक्लायामाषाढ़े भगवान हरिः ।भुजंग शयने शेते क्षीरार्णवजले सदा ।।”
इसलिए इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु को शयन कराना चाहिए और सूर्य नारायण के तुला राशि मे आने पर कार्तिक शुक्ल एकादशी को जगाना चाहिए । अधिक मास हो तो भी यह विधि इसी प्रकार रहती है ।इस दिन से चातुर्मास का भी नियम प्रारम्भ होता है ।
वामन पुराण के मुताबिक असुरों के राजा बलि ने अपने बल और पराक्रम से तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था। राजा बलि के आधिपत्य को देखकर इंद्र देवता घबराकर भगवान विष्णु के पास मदद मांगने पहुंचे।
देवताओं की पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गए। वामन भगवान ने बलि से तीन पग भूमि मांगी। पहले और दूसरे पग में भगवान ने धरती और आकाश को नाप लिया। अब तीसरा पग रखने के लिए कुछ बचा नहीं था तो राजा बलि ने कहा कि तीसरा पग उनके सिर पर रख दें। भगवान वामन ने ऐसा ही किया। इस तरह देवताओं की चिंता खत्म हो गई। वहीं भगवान राजा बलि के दान-धर्म से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा बलि से वरदान मांगने को कहा तो बलि ने उनसे पाताल में बसने का वर मांग लिया। बलि की इच्छा पूर्ति के लिए भगवान को पाताल जाना पड़ा। भगवान विष्णु के पाताल जाने के बाद सभी देवतागण और माता लक्ष्मी चिंतित हो गए। अपने पति भगवान विष्णु को वापस लाने के लिए माता लक्ष्मी गरीब स्त्री बनकर राजा बलि के पास पहुंची और उन्हें अपना भाई बनाकर राखी बांध दी…. बदले में भगवान विष्णु को पाताल लोक से वापस ले जाने का वचन ले लिया।
पाताल से विदा लेते वक्त भगवान विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया कि वह आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक पाताल लोक में वास करेंगे। पाताल लोक में उनके रहने की इस अवधि को योगनिद्रा माना जाता है ।
पद्मपुराण में कहा गया है-
“आषाढ़े तु सिते पक्षे एकादश्यामुपेषितः ।चातुर्मास्य व्रतं कुर्यात् यत्किंचिन्नियतो नरः ।।”
अर्थात एकादशी, द्वादशी, पूर्णिमा, अष्टमी अथवा कर्क संक्रान्ति- -इनमे विधिपूर्वक चार प्रकार से व्रत ग्रहण करके चातुर्मास का व्रत करें। और शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि मे समाप्त कर दें ।
पुष्पादि से भगवान की प्रतिमा का अर्चन- वन्दन कर प्रार्थना करे। और कहे कि- हे जगन्नाथ स्वामिन्! आप के शयन काल मे यह सम्पूर्ण संसार शयन करता है और आपके जग जाने पर सारा संसार जागता है ।हे अच्युत! मुझ पर प्रसन्न हो और निर्वघ्नता पूर्वक मुझे यह व्रत करने की शक्ति प्रदान करे। ताकि आपके जागरण की तिथि तक मैं चातुर्मास व्रत का पालन कर सकूं। इस बीच में श्रावण में शाक, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध तथा कार्तिक में दाल न खाने का व्रत पालन करूंगा। मेरे इस व्रत का निर्विघ्न पालन हो ।
हे प्रभु ऐसी कृपा करें कि चातुर्मास में आपके श्री चरणों में मेरा चंचल मन माया में मोहित न होकर मायापती के चरणों में अनवरत लगा रहे। हर पल आपके नाम रूप लीला धाम का स्मरण बना रहे।
निषेध :-
चातुर्मास व्रत में धर्मशास्त्र में अनेक वस्तुओ के सेवन का निषेध किया गया है ।और उसके परिणाम भी बताये गये है ।चातुर्मास में गुड़ न खाने से मधुर स्वर, तैल का प्रयोग न करने से स्निग्ध शरीर, शाक त्यागने से पक्वान्न भोगी, दधि,दूध, मट्ठा आदि के त्यागने से विष्णु लोक की प्राप्ति होती है ।इसमे योगाभ्यासी होना चाहिए ।कुश की आसानी या काष्ठासन पर शयन करना चाहिए। और रात- दिन निष्ठापूर्वक हरिस्मण पूजनादि मे तत्पर रहना चाहिए।
कोशिश करें कि दोनों पछ की एकादशी व्रत अवश्य करें।
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