आपातकाल को भले ही 45 साल बीत चुके हों, मगर भारतीय राजनीति का वह काला अध्याय आज भी भुक्तभोगियों को जुबानी याद है। हालांकि उस दौर में प्रताड़ना झेलने वाले अधिकतर लोकतंत्र के सेनानी अब दुनिया को अलविदा कह चुके हैं मगर जो जीवित हैं वे 25 जून 1975 की काली रात के मंजर को याद कर सिहर उठते हैं। आज dearfacts.com आपातकाल के काले अध्याय को समाप्त करने के लिए अपने प्राणों की आहुति देकर भी देश को बचाने वाले उन सभी लोकतंत्र के सेनानियों को याद करके नमन करता है.. पढ़िए Ayush Ankor द्वारा लिखा है विशेष आलेख…
जब देश के चौथे स्तंभ पर लग गया प्रतिबंध
अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया कानून बनाया। इसके जरिए आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक लगाने की व्यवस्था की गई। चारों समाचार एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, हिन्दुस्थान समाचार और समाचार भारती को खत्म कर उन्हें ‘समाचार’ नामक एजेंसी में विलीन कर दिया गया। तब के सूचना और प्रसारण मंत्री ने महज छह संपादकों की सहमति से प्रेस के लिए ‘आचार संहिता’ की घोषणा कर दी। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की बिजली के तार तक काट दिए गए। इस बात का पूरा प्रयास किया गया कि नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना आम जनता तक न पहुंचे। जहां कहीं पत्रकारों ने इस पहल का विरोध किया,उन्हें भी बंदी बनाया गया। पुणे के साप्ताहिक ‘साधना’ और अहमदाबाद के ‘भूमिपुत्र’ पर प्रबंधन से संबंधित मुकदमे चलाए गए। बड़ोदरा के ‘भूमिपुत्र’ के संपादक को गिरफ्तार कर लिया गया। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की संपत्ति पर दिल्ली नगर निगम द्वारा कब्जा कराके उसे बेचने का प्रयास किया गया। सरकार की कार्रवाइयों से परेशान इसके मालिकों ने सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष और पांच निदेशकों को अंतत: स्वीकार कर लिया। इसके बाद अखबार के तत्कालीन संपादक एस मुलगांवकर को सेवामुक्त कर दिया गया।
देश के स्वर बुलंद करने वाले गायको और फिल्मों पर भी लगा प्रतिबंध
आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को जबरदस्ती बर्बाद करने की कोशिश हुई। किशोर कुमार जैसे गायक को काली सूची में रखा गया। ‘आंधी’ फिल्म पर पाबंदी लगा दी गई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी आपातकाल के दौरान हो गए थे कैद
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया। माना गया कि यह संगठन विपक्षी नेताओं का करीबी है। इसका बड़ा संगठनात्मक आधार सरकार के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन करने की सम्भावना रखता था। पुलिस इस संगठन पर टूट पड़ी और उसके हजारों कार्यकर्ताओं को कैद कर दिया गया।
आइए जानते हैं इमरजेंसी को लेकर कुछ और रोचक तथ्य –
- तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा की थी. 26 जून को रेडियो से इंदिरा गांधी ने इसे दोहराया.
- आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा कि जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी.
- आपातकाल के पीछे सबसे अहम वजह 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से इंदिरा गांधी के खिलाफ दिया गया फैसला बताया जाता है. यह फैसला 12 जून 1975 को दिया गया था.
- इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को रायबरेली के चुनाव अभियान में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने का दोषी पाया था. साथ ही उनके चुनाव को खारिज कर दिया था. इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी पर छह साल तक के लिए चुनाव लड़ने या कोई पद संभालने पर भी रोक लगा दी गई थी.
- उस वक्त जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा ने यह फैसला सुनाया था. हालांकि 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश बरकरार रखा, लेकिन इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दी.
- बताया जाता है कि आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था.
- सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया था कि देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था. आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा) के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी शुरू हो गई थी.
- गिरफ्तार होने वालों में जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फर्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे. 21 महीने तक इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू रखा इस दौरान विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया.
- आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद विरोध की लहर तेज होती देख प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करके आम चुनाव कराने की सिफारिश कर दी. देश के लिए वो 21 माह जेल सरीखे बीते थे.
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कहा जाता है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनके दोस्तों की चौकड़ी ही देश को चला रहे थे और उन्होंने इंदिरा गांधी को एक तरह से कब्जे में कर लिया था.
इमरजेंसी के दौरान सरकार ने जीवन के हर क्षेत्र में आतंक का माहौल पैदा कर दिया था। इन सभी काले कारनामों के कारण जनता ने 1977 में एकजुट होकर न केवल कांग्रेस बल्कि इंदिरा गांधी को भी धूल चटा दी। इस तरह जनता ने लोकतंत्र में अपनी आस्था का सबूत दे दिया। आज इमरजेंसी को भुलाने की कोशिश की जाती है लेकिन हमें उन काले दिनों के अनुभवों को नहीं भूलना नहीं चाहिए। उन अनुभवों से ही हम ये सबक सीखते हैं जिनसे हमारा लोकतंत्र और मजबूत बनता है।