हर उम्र का अपना ही एक तकाज़ा होता है
हासिल नहीं होता आँगन में दौड़ना
एक उम्र गुजरने के बाद।
बचपन को बचपन में ही जिया जाये तो बेहतर है
अच्छा नहीं होता अल्हड़ सा घूमना
जवानी का रंग चढ़ने के बाद।
उम्र के साथ निभाया जाये वो रिश्ता अच्छा लगता है
खरा नहीं होता भौजाई की कलाई मरोड़ना
बेटों के घोड़ी चढ़ने के बाद।
जिम्मेदारियों को साझा करने का भी एक वक़्त होता है
मुमकिन नहीं होता कुंजी कमर से बांधे रखना
हाथ में लाठी पकड़ने के बाद।
हमसफ़र के अहसासों का इख़्तियार भी रखना पड़ता है
बयां नहीं होता हर लफ्ज़ उसी लहजे में
मुँह से दाँतों के झड़ने के बाद।
दर्पण को भी सूरत की जवानी अच्छी लगती है
मुकम्मल नहीं होता बालो में कंघी फिराना
उम्र की झुर्रियां पड़ने के बाद।
छूटे हुए लम्हों को भी जीने का मौका मिलता है
गिला नहीं होता बचपन गुजर जाने का
पोते की किलकारियां सुनने के बाद।
तस्वीरों को खजाने की हीं तरह संजोना पड़ता है
आसान नहीं होता अल्फाज़ो से कहानियों में रंग भरना
यादों का पिटारा खुलने के बाद।
हर उम्र को उसी के अंदाज में जीना ही जिंदगी है
वर्ना धरे के धरे रह जाते हैं सारे अरमान
पंक्षी के पिंजरे से उड़ने के बाद।
कवि:
अभिनयकुमार सिंह