आठ महामानवों को पृथ्वी पर चिरंजीवि माना जाता है- अश्वत्थामा, बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, परशुरामजी, कृपाचार्य और महामृत्युंजय मंत्र के रचयिता मार्कंडेय जी। हनुमानजी के चिरंजीवि होने की कथा संक्षेप में सुनाता हूं। आप यदि इस रहस्य को समझना चाहते हैं तो पूरे भाव से और पूरे धैर्य से पढ़ें-
कथा को कभी रामचरितमानस की चौपाइयों और रामायण के उद्धरणों के साथ विस्तार से भी सुनाऊंगा उसमें आपको ज्यादा आनंद आएगा। हनुमानजी सीताजी को खोजते-खोजते अशोक वाटिका पहुंच गए। विभीषणजी से उन्हें लंका के बारे में संक्षिप्त परिचय प्राप्त हो ही चुका था।
पवनसुत ने भगवान श्रीराम द्वारा दी हुई मुद्रिका चुपके से गिराई। रामचरित मानस को देखें तो हनुमानजी के अशोक वाटिका में पहुंचने के प्रसंग से ठीक पहले का प्रसंग है रावण के वहां अपनी रानियों और सेविकाओं के साथ आने का। वह माता सीता को तरह-तरह का प्रलोभन देता है उन्हें पटरानी बनाने की बात कहता है और समस्त रानियों को उनकी सेवा में तैनात कर देने की बात कहता है।
परंतु सीताजी प्रभावित नहीं होतीं तो वह उन्हें डराने का दुस्साहस करता है. चंद्रमा के समान तेज प्रकाशवान चंद्रहास खड़ग निकालकर माता को डराता है और उन्हें एक मास का समय देता है विचार का, उसके बाद वह या तो उनके साथ बलपूर्वक विवाह करेगा अन्यथा वध कर देगा।
माता सीता सशंकित है कुछ भयभीत भी. संकट के समय में भयभीत होना सहज स्वभाव है. तभी हनुमानजी वहां पहुंचे हैं. वृक्ष पर छुपकर बैठे हैं और उचित समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हनुमानजी के साथ तीन उलझनें हैं- पहला तो माता सीता बहुत भयभीत हैं इसलिए यदि वह अचानक वहां पहुंच जाएं तो उन्हें देखकर माता और भयाक्रांत हो जाएंगी। हनुमानजी तो स्वयं को सेवक के भाव से देखते थे। सेवक अपने स्वामी के आदेश से आया है वह भी उसकी प्राणप्रिया की सुध लेने। जिसकी सुध लेने आया है उसे भयभीत कैसे कर दें।
दूसरी उलझन, हनुमानजी के समक्ष एक उलझन है कि माता के समक्ष प्रथम बार जा रहा हूं. वानरकुल को ऐसे ही अशिष्ट माना जाता है. कहीं माता मेरे किसी आचरण को अशिष्टता या उदंडता न समझ लें. अगर आज के तौर-तरीके में कहूं तो उनके समक्ष भी वही उलझन है जो हमारे समक्ष होती है- तो क्या सर्वथा उचित व्यवहार, संबोधन आदि होगा. यह सब सोच रहे हैं।
तीसरी उलझन, मैं किस भाषा का प्रयोग करूं अपनी बात कहने के लिए. रावण को उन्होंने उत्तम संस्कृत भाषा का प्रयोग करते सुना है. तो यदि वह भी संस्कृत भाषा बोलते हैं तो कहीं उन्हें भी रावण का भेजा हुआ कोई मायावी समझकर माता क्रोध में चिल्लाने लगें और रक्षकों की नींद खुल जाए. किष्किंधा की बोली का प्रयोग करूं तो माता के लिए यह अपिरिचत लगेगा. बहुत विचार करने पर वह अयोध्या की भाषा का प्रयोग करते हैं।
संवाद बहुत काम करता है. जब ऋष्यमूक पर उनकी भेंट श्रीराम-लक्ष्मणजी से हुई थी तो वह एक ब्राह्मण का वेष धरकर पहुंचे थे और उत्तम संस्कृत भाषा का प्रयोग कर रहे थे तब श्रीराम ने कहा था कि इनकी वाणी में जितनी मिठास है उतनी ही सुंदर शैली, उतना ही उच्चकोटि का व्याकरण प्रयोग. ऐसे व्यक्ति यदि जिस राजा के मंत्री हों वह राजा कभी दुखी हो ही नहीं सकता।
तो हनुमानजी ने मुद्रिका गिराई और माता की प्रतिक्रिया को बड़े गहराई से देखा. *
तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥
तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर श्रीरामजी की अँगूठी देखी. अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं. माता विभोर हैं, चकित हैं कि ये कहां से आई।
यदि रामनाम के रस में डूबते हैं या रामनाम रसधारा की महिमा का आनंद लेना है तो इन तीन चौपाइयों के लिए आप तुलसीबाबा को उनकी भक्ति को देखते हुए श्रीहनुमानजी के समकक्ष रामभक्त मान लेंगे।
जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥
सीताजी विचारने लगीं- श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी अँंगूठी बनाई ही नहीं जा सकती. सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं. इसी समय हनुमान्जी मधुर वचन बोले-
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥
वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया. वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं. हनुमान्जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई।
हनुमानजी को इसीलिए तो मैं कम्युनिकेशन का मास्टर कहता हूं. कम्युनिकेशन में सिर्फ यही मायने नहीं रखता कि कैसे अपनी बात रखकर किसी को प्रभावित किया जाए बल्कि किस स्थिति में किसके साथ किस प्रकार का आचरण करें. सीताजी पीड़ी में हैं, आत्मनाश तक के भाव से ग्रसिंत हो रही हैं उसी समय हनुमानजी उन्हें आनंदित करते हैं, उनके मुख पर मुस्कान ला देते हैं. आप ही निर्णय़ करें क्या हनुमानजी से बेहतर कम्युनिकेशन का कोई उदाहरण मिलता है।
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ।।
(सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्जी पास चले गए. उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ।
अब देखिए अपने चातुर्य, अपनी बुद्धि का कैसा सुंदर परिचय हनुमानजी देते हैं. इस दोहे को पढ़ते तो मेरे रोंगटे हर्ष से खड़े हो जाते हैं।
रामदूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥
(हनुमान्जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ. करुणानिधान के सत्यशपथ के साथ कहता हूँ- हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ. श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है।
कह माता सीता ने उसे तत्काल पहचान लिया. वैसे तो सुग्रीव ने हर दिशा में दूत भेजे थे पर प्रभु श्रीराम जानते थे कि उनकी प्राणप्रिया के पास पहुंचेंगे तो बस हनुमानजी. सीताजी उस समय क्या सोचेंगी वह भी प्रभु जानते थे. इसलिए उन्होंने हनुमानजी को पति-पत्नी के बीच का Code भी बता दिया था. दो अतिशय प्रिय व्यक्तियों के बीच एक कोड होता है, विश्वास का कोड ताकि कभी कहीं कोई मायावी अपनी माया फैलाए तो उससे परख सकें. मैंने सुना है पति-पत्नी के बीच भी कोड होता है।
तो वह कोड क्या है जिसके कारण सीताजी को एक सेकेंड नहीं लगा यह निर्णय करने में कि यह वानर मायाजीव नहीं रामदूत हैं।
हनुमानजी ने कहा- अतिशय प्रिय करूणानिधान की. करूणानिधान संसार में सिर्फ माता सीता ही श्रीराम को एकांत में कहती थीं. उसके अलावा और कोई नहीं. माता ने जब यह सुना तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि यह कोई मायावी वानर नहीं श्रीराम का सेवक ही है।
माता ने अपने नाथ का कुशलक्षेम पूछा. हनुमानजी ने उनकी विरह वेदना बताई कि हे माता आपके विरह में प्रभु इतने दुर्बल हो गए हैं कि जो मुद्रिका मैं लेकर आया हूं वह अब उनकी उंगलियों में नहीं आते बल्कि कंकण यानी कंगन की तरह पहनने योग्य हो गए हैं।
इस प्रसंग को संक्षेप में छोड़ रहा हूं क्योंकि यह इतना सरस है कि इस पर ही लिखूं तो एक पोस्ट कम पड़ जाए. पोस्ट लंबी हो जाए तो प्रेमीजन पढ़ते नहीं तो इसे अभी विराम देता हूं। फिर कभी लिखा जाएगा कि कैसे प्रभु की अंगूठी भगवान के लिए कलाई में धारण करने योग्य कंगन जैसी हो गई है।
हनुमानजी ने प्रभु का संदेश माता को दिया। माता का कुशलक्षेम पूछा. माता से आज्ञा लेकर वाटिका के फल खाए. हनुमानजी ने फल इसलिए खाए क्योंकि माता को आशंका थी कि हनुमानजी जैसे वानरों के सहयोग से क्या प्रभु रावण को जीत सकेंगे।
माता पूछती हैं कि क्या सारे वानर तुम्हारे ही जैसे हैं. तो हनुमानजी कहते हैं कुछ मेरे से छोटे भी हैं. तो माता को शंका होती है कि फिर कैसे होगा? हनुमानजी ज्ञानियों के बीच अग्रगण्य हैं यानी ज्ञानीजनों में भी श्रेष्ठ हैं और कम्युनिकेशन के मास्टर तो हैं ही.लका पार करके वह अपने सामर्थ्य शक्ति का परिचय दे चुके हैं. अपनी बातों से माता को प्रभावितकर वाकशक्ति को सिद्ध कर चुके हैं अब उन्हें अपने मित्रों-साथियों की शक्ति का भीतो परिचय देना है।
इसके साथ-साथ रामदूत हनुमानजी को शत्रु के मन में श्रीराम की शक्ति का प्रदर्शन कर एक चेतावनी भी देनी थी. राक्षसों के मन में प्रभु का भय न पैदा करें, ऐसा कैसे संभव था?
हनुमानजी ने फल खाने के बहाने वाटिका में इतना उत्पात मचाया कि रावण ने अपने परमवीर पुत्र अक्षय कुमार को हनुमानजी को पकड़ने भेजा।
रावण का अजेय पुत्र अक्षय कुमार बजरंग बली के हाथों मारा गया. अक्षय जैसे वीर का वध एक वानर ने कर दिया, यह सोचकर रावण घबरा गया।
उसने इंद्रजीत को हनुमानजी को पकड़ने भेजा. इंद्रजीत को भी हनुमानजी ने नाकों चने चबवा दिए. हारकर उसने पवनसुत पर ब्रह्मास्त्र चलाया. ब्रह्मास्त्र का मान रखने को हनुमानजी अल्प मूर्च्छा में आए तो नागपाश में इंद्रजीत ने उन्हें बांध लिया।
हनुमानजी को रावण के दरबार में लाया गया. एक झटके में ही उन्होंने खुद को मुक्त कर लिया।
रावण ने इंद्रजीत को हनुमानजी का वध करने को कहा लेकिन विभीषण ने समझाया कि दूत का वध करना पाप है. बौखलाए रावण ने अंगभंग की सजा सुनाई. हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने की सजा मिली।
राक्षसों ने बजरंग बली की पूंछ में कपड़ा और तेल लपेटकर पूरी लंका में घुमाया. इस प्रकार हनुमानजी ने पूरी लंका देख ली. सीताजी को भी सूचना मिली कि रावण हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने वाला है. इससे वह बहुत व्यथित हुईं।
माता ने अग्निदेव की प्रार्थना की. अग्निदेव प्रकट हुए तो माता ने कहा- अग्निदेव यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूं तो आप मेरे पुत्र हनुमान को अपने तेज से पीड़ित मत कीजिएगा।
अग्निदेव ने कहा- ऐसा ही होगा माता. आप चिंता न करें. आपने जिसे पुत्र माना है वह श्रीराम का कार्य करने आए हैं. उनके कार्य में बाधा हो ही नहीं सकती।
हनुमानजी ने पूरी लंका का निरीक्षण कर लिया उसके बाद घूम-घूमकर पूरी लंका जला दी. माता की कृपा से पूंछ में आग लगने के बावजूद हनुमानजी की पूंछ नहीं जली. हनुमानजी ने लंका में दो घर छोड़ दिए।
एक घर विभीषण का, क्योंकि वह रामभक्त थे. दूसरा कुंभकर्ण का. जब वह कुंभकर्ण के महल पहुंचे तो कुंभकर्ण गहरी नींद में सो रहा था।
उसकी पत्नी ने हनुमानजी से विनती की कि उसके पति गहरी निद्रा में सो रहे हैं. वह इस अपराध में सम्मिलित ही नहीं हैं. श्रीराम तो न्यायप्रिय हैं. किसी को अकारण दंड नहीं देते।
उसने कहा कि सीताहरण में उसके पति की सहमति ही नहीं हैं क्योंकि वह तो सो रहे हैं. उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं. हनुमानजी ने उसका महल भी नहीं जलाया।
पवनसुत तसल्ली से पूरी लंका जला फिर भी अग्नि अभी शेष थी. पूंछ की आग बुझाने के लिए पवनसुत समुद्र में गए. आग बुझाते समय उन्हें अचानक बड़ा पछतावा हुआ. उन्हें लगा कि मैंने पूरी लंका जला दी कहीं अनर्थ तो नहीं हो गया।
उन्हें आशंका हुई कि सारी लंका तो जला डाली, कहीं ऐसा तो नहीं कि उससे आग वन में चली गई हो और माता सीता भी कहीं जल गई हों।
बजरंग बली के मन में भय हुआ कि जिसकी सूचना लेने आए थे, कहीं उसका अनिष्ट तो नहीं कर दिया।
उन्हें इस बात ध्यान ही न रहा कि जिसकी आज्ञा से अग्नि ने उनकी पूंछ न जलाई, वह भला स्वयं सीताजी को क्या जलाएंगे!
भोले-भाले मन वाले बजरंग बली फिर तुरंत भागे लंका माता की सुधि लेने. हालांकि उनके मन में यह ख्याल यह भी आ रहा है कि सीताजी पर अग्नि का भला क्या प्रभाव होगा परंतु माता ने उन्हें पुत्र कहकर संबोधित किया था।
इसलिए उस समय उनके मन में पुत्ररूप वाला भाव आ रहा था. संकटकाल में मन के कोमल भाव सबसे ज्यादा पुष्ट हो जाते हैं. परिजनों के लिए पीडा उभरती है इससे हनुमानजी भी मोहित हो गए हैं।
बजरंग बली धर्मसंकट में हैं कि माता के सम्मुख जाएं भी तो जाएं कैसे? आखिर क्या बहाना बनाया जाए।
वह यह कैसे कहेंगे कि मैं यह देखने आया हूं कि आप तो लंका की आग में भस्म नहीं हुई. अग्नि श्रीराम से बैर मोलने की हिम्मत कर नहीं सकते।
इस धुन में खोए पवनसुत फिर से अशोक वाटिका पहुंचे और कहा कि आपसे आज्ञा लेने आया हूं।
माता तो अंतर्यामी ठहरीं. हनुमानजी को सकुशल देखकर वह बड़ी प्रसन्न हुईं, सब समझ गईं. सर्वप्रथम उन्होंने अग्निदेव का आभार व्यक्त किया।
अब हनुमानजी पुत्र के भाव से आए हैं और माता ने पढ़ लिया है तो वह भी अब देवी नहीं एक माता की भांति सोच रही हैं. हर माता अपने पुत्र को चिरंजीवि और अमर ही कर देना चाहती है. माता सीता भी उसी भाव में हैं।
हनुमानजी को कुशल देखकर इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने बजरंग बली को अमर होने का वरदान दे दिया. माता के इसी वरदान से हनुमानजी अमर हो गए थे. इंद्र ने पहले ही उन्हें बाल्यकाल में इच्छानुसार जीवनत्याग का वरदान दिया ही था परंतु माता ने तो अशोक वाटिका में अमर ही कर दिया।
हनुमान वापस क्यों आए हैं माता यह बात समझ गईं थी पर रामदूत उनके सहारे बने थे, इसलिए पुत्र को झेंप हों यह भी उचित नहीं. इसलिए माता ने कहा- पुत्र हनुमान तुमने मेरे मन की बात समझ ली. मेरी इच्छा थी कि लंका से विदा होने से पहले तुम मेरे पास एक बार और आकर मिलो।
हनुमानजी गदगद हो गए. उन्होंने कहा- आपसे मुझे मेरी अपनी जननी माता अंजना जैसा प्रेम मिला है. माता पुत्र होने के नाते तो मेरा कर्तव्य है कि माता के संकट को तत्काल दूर करना. मैं तो अभी आपको अपने साथ लेकर चल सकता हूं लेकिन जिसने प्रभु को पीड़ा दी है, उसे दंड भी प्रभु ही देंगे।
इसलिए मैं प्रभु श्रीराम के साथ आउंगा और अत्याचारी का अंत कर आपको कौशलपुरी लेकर जाउंगा। हनुमानजी ने आशीर्वाद लिया और उन्हें वचन दिया कि एक माह के भीतर वह प्रभु के साथ आकर रावण का नाशकर उन्हें ले जाएंगे. इस प्रकार हनुमानजी अमर हुए।
- डॉ0 विजय शंकर मिश्र