राम भक्ति और आदर्श भातृप्रेम | मणिराम दास महाराज

श्री भरत भईया का चरित्र समुद्र की भाँति अगाध है, बुद्धि की सीमा से परे है। लोक-आदर्श का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है। भ्रातृ प्रेम की तो ये सजीव मूर्ति थे। ननिहाल से अयोध्या लौटने पर जब इन्हें माता से अपने पिता के स्वर्गवास का समाचार मिलता है, तब ये शोक से व्याकुल होकर कहते हैं- ‘मैंने तो सोचा था कि पिता जी श्री राम का अभिषेक करके यज्ञ की दीक्षा लेंगे, किन्तु मैं कितना बड़ा अभागा हूँ कि वे मुझे बड़े भइया श्री राम को सौंपे बिना स्वर्ग सिधार गये। जब श्री राम ही मेरे पिता और बड़े भाई हैं, जिनका मैं परम प्रिय दास हूँ। उन्हें मेरे आने की शीघ्र सूचना दें। मैं उनके चरणों में प्रणाम करूँगा। अब वे ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं।’

जब कैकेयी अंबा जू ने श्री भरत लाल जी को श्री राम वनवास की बात बतायी, तब वे महान दु:ख से संतप्त हो गये। उन्होंने कैकेयी अंबा जू से कहा- ‘मैं समझता हूँ, लोभ के वशीभूत होने के कारण तू अब तक यह न जान सकी कि मेरा भैया श्री रामचन्द्र जी के साथ भाव कैसा है। इसी कारण तूने राज्य के लिये इतना बड़ा अनर्थ कर डाला। मुझे जन्म देने से अच्छा तो यह था कि तू बाँझ ही होती। कम-से-कम मुझ जैसे कुलकंलक का तो जन्म नहीं होता। यह वर माँगने से पहले तेरी जीभ कट कर गिरी क्यों नहीं!’ इस प्रकार कैकेयी अंबा जी को नाना प्रकार से बुरा-भला कहकर श्री भरत जी कौशल्या जी के पास गये और उन्हें सान्त्वना दी।

भरत जी ने गुरुदेव श्री वसिष्ठ जी की आज्ञा से पिता की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की। सबके बार-बार आग्रह के बाद भी इन्होंने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया और दल-बल के साथ श्री राम प्रभू को मनाने के लिये चित्रकूट चल दिये। श्रृंगवेरपुर में पहुँचकर इन्होंने निषादराज को देखकर रथ का परित्याग कर दिया और श्री रामसखा गुह से बड़े प्रेम से मिले। प्रयागराज में अपने आश्रम पर श्री भारद्वाज इनका स्वागत करते हुए कहते हैं- ‘भरत! सभी साधनों का परम फल श्री सीताराम जी का दर्शन है और उसका भी विशेष फल तुम्हारा दर्शन है। आज तुम्हें अपने बीच उपस्थित पाकर हमारे साथ तीर्थराज प्रयाग भी धन्य हो गये।’

रामभक्ति और आदर्श भ्रातृप्रेम


श्री भरत भईया को दल-बल के साथ चित्रकूट में आता देखकर श्री लक्ष्मण को इनकी नीयत पर शंका होती है। उस समय श्री राघवेंद्र सरकार ने उनका समाधान करते हुए कहा- ‘लक्ष्मण! भरत पर सन्देह करना व्यर्थ है। भरत के समान शीलवान भाई इस संसार में मिलना दुर्लभ है। अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी पद प्राप्त करके श्री भरत को मद नहीं हो सकता।’ चित्रकूट में भगवान श्री राम से मिलकर पहले श्री भरत भईया उनसे अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं, किन्तु जब देखते हैं कि उनकी रूचि कुछ और है तो भगवान की चरण-पादुका लेकर अयोध्या लौट आते हैं। नन्दिग्राम में तपस्वी जीवन बिताते हुए ये श्रीराम के आगमन की चौदह वर्ष तक प्रतीक्षा करते हैं। भगवान को भी इनकी दशा का अनुमान है। वे वनवास की अवधि समाप्त होते ही एक क्षण भी विलम्ब किये बिना अयोध्या पहुँचकर इनके विरह को शान्त करते हैं। श्री रामभक्ति और आदर्श भ्रातृप्रेम के अनुपम उदाहरण श्री भरत लाल जी धन्य हैं।

तुलसीदास जी श्री राम जी के चरित्र में भरत प्रेम का एक अद्भुत विकास करते हैं, जो अन्य राम-कथा ग्रन्थों में नहीं मिलता। उदाहरणार्थ-

चित्रकूट में राम जी के रहन-सहन का वर्णन करते हुए वे कहते है-

“जब-जब राम अवध सुधि करहीं। तब-तब बारि बिलोचन भरहीं।

सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेह सील सेवकाई।

कृपासिन्धु प्रभु होहिं दुखारी। धीरज धरहिं कुसमय बिचारी’

भरत भईया के आगमन का समाचार सुनकर लक्ष्मण जब राम के अनिष्ट की आशंका से उनके विरुद्ध उत्तेजित हो उठते हैं, मेरे प्रभू जी कहते हैं-

‘कहीं तात तुम्ह नीति सुनाई। सबतें कठिन राजमद भाई।।
जो अँचवत मातहिं नृपतेई। नाहिंन साधु समाजिहिं सेई।।

सुनहु लषन भल भरत सरीखा। विधि प्रपंच महँ सुना न दीषा।।
भरतहिं होई न राज मद, विधि हरिहर पद पाइ।
कबहुँ कि कांजी सीकरनि छीर सिन्धु बिनसाइ।।

तिमिर तरून तरिनिहि मकु गिलई। गगन मगन मकु मेघहि मिलई।।
गोपद जल बूड़ति घट जोनी। सहज क्षमा बरू छाड़इ छोनी।।

मसक फूँक मकु मेरू उड़ाई। होइ न नृप पद भरतहि भाई।।
लषन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबन्धु नहिं भरत समाना।।

सगुन क्षीर अवगुन जल ताता। मिलइ रचइ परपंच विधाता।।
भरत हंस रवि बंस तड़ागा। जनमि लीन्ह गुन शेष विभागा।।

गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्ह उजियारी।।
कहत भरत सुन सील सुभाऊ। प्रेम पयोधि मगन रघुराऊ।।”

चित्रकुट में भरत भईया की विनय सुनने के लिए किये गये वशिष्ठ के कथन पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राघवेन्द्र सरकार कह उठते हैं-

“गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम हृदय आनन्द विसेषी।।
भरतहिं धरम धुरन्धर जानी।। निज सेवक तन मानस बानी।।

बोले गुरु आयसु अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगल मूला।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुवन भरत सन भाई।।

जो गुरु पर अंबुज अनुरागी। ते लोक हूं वेदहुं बड़ भागी।
लखि लघु बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।

भरत कहहिं सोइ किये भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।”

ये तीनों विस्तार मौलिक हैं और ‘रामचरितमानस’ के पूर्व किसी राम-कथा ग्रन्थ में नहीं मिलते। भरत के प्रति राम के प्रेम का यह विकास तुलसीदास की विशेषता है और पूरे ‘रामचरितमानस’ में उन्होंने इसका निर्वाह भली भांति किया है।
भरत भईया ननिहाल से लौटते हैं तो कौशल्या अंबा जू उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ती हैं और उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती है। राम-माता का यह चित्र ‘अध्यात्म रामायण’ में भी नहीं है, यद्यपि उसमें भरत के प्रति कौसल्या अंबा जू की वह संकीर्ण-दृदयता भी नहीं है, जो श्रीमद्’वाल्मीकि रामायण’ में पायी जाती है।

‘वाल्मीकि-रामायण’ में तो कौसल्या अंबा जू श्री भरत जी से कहती हैं, ‘यह शत्रुहीन राज्य तुम को मिला, तुमने राज्य चाहा और वह तुम्हें मिला। कैकेयी ने बड़े ही निन्दित कर्म के द्वारा इस राज्य को राजा से पाया है.. धन-धान्य से युक्त हाथी, घोड़ों और रथों से पूर्ण यह विशाल राज्य कैकेयी ने राजा से लेकर तुमको दे दिया है।” इस प्रकार अनेक कठोर वचनों से कौशल्या ने भरत का तिरस्कार किया, जिनसे वे घाव में सुई छेदने के समान पीड़ा से दुखी हुए।

रामचरितमानस की लोकप्रियता


इसी प्रकार भरत, सीता, कैकेयी और कथा के अन्य प्रमुख पात्रों में भी तुलसीदास जी ने ऐसे सुधार किये हैं कि वे सर्वथा तुलसीदास जी के हो गये हैं। इन चरित्रों में मानवता का जो निष्कलुष किन्तु व्यवहारिक रूप प्रस्तुत किया गया है, वह न केवल तत्कालीन साहित्य में नहीं आया, तुलसी दास जी के पूर्व राम-साहित्य में भी नहीं दिखाई पड़ा। कदाचित इसलिए तुलसीदास जी के श्री ‘रामचरितमानस’जी ने वह लोकप्रियता प्राप्त की, जो तब से आज तक किसी अन्य कृति को नहीं प्राप्त हो सकी। भविष्य में भी इसकी लोकप्रियता में अधिक अन्तर न आयेगा, दृढ़तापूर्वक यह कहना तो किसी के लिए भी असम्भव होगा किन्तु जिस समय तक मानव जाति आदर्शों और जीवन-मूल्यों में विश्वास रखेगी, ‘श्री रामचरितमानस जी को सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता रहेगा, यह कहने के लिए कदाचित किसी भविष्यत-वक्ता की आवश्यकता नहीं है।

🙏जय जय सियाराम जी🙏🏻 ‼_आप सभी लोगों के स्नेह प्रेम और गुरुजनों के आशीर्वाद का आकांछी- संगीतमय श्री राम कथा श्रीमद् भागवत कथा एवं श्रीमद् प्रेम रामायण महाकाव्य जी की कथा के सरस गायक-
दासानुदास- मणिराम दास
संस्थापक श्री सिद्धि सदन परमार्थ सेवा संस्थान एवं ज्योतिष परामर्श केंद्र श्री धाम अयोध्या जी।
अध्यछ- वंदे मातरम मंच अयोध्या
संपर्क सूत्र-6394614812/9616544428

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