जानकीजी ने गुरूदेव और गुरु माताओं को प्रणाम किया, गुरु माताओं ने बहुत ह्रदय से आशीर्वाद दिया है, तुम सदैव सुहागिन रहो, माताओं को प्रणाम किया है ह्रदय बोल रहा है, माताऐं मुख से नहीं बोल रही है, नेत्रों से गंगा यमुना के समान धाराऐं बह रही हैं।
महारानी को मुनिवेश में देखा हैं, ह्रदय बोल रहा है जब तक गंगा में धारा बहे तब तक तेरा सौभाग्य अमर रहे, सब शान्त कुटिया के प्रांगण में बैठे हैं, अब वशिष्ठजी ने कहना प्रारम्भ किया हैं, बोले है राघव! एक दुख भरा समाचार है।
तुम्हारे अयोध्या से आने के बाद महाराज तुम्हारे विरह को सहन नहीं कर पाये, उन्होंने तुम्हारे विरह में प्राण त्याग दिये, महाराज दशरथ स्वर्ग सिधार गये, दशरथजी के मरण के समाचार से सारा वातावरण शोकमय हो गया, ऐसा लगा जैसे शोक आज शरीर धारण कर चित्रकूट में इस कुटिया के सामने आकर बैठ गया।
“भये सोचबस सोच विमोचन” जो शोक को दूर करते हैं वो भी शोकमय हो गये, ऐसा लगा मानो आज ही महाराज की मृत्यु हुई हो, सारा वातावरण रूदन में डूब गया,
गुरुदेव ने पुनः खड़े होकर अपने ज्ञान के प्रकाश से अपनी विवेकमयी वाणी से सबका शोक दूर किया।
पुनः सब वैदिक क्रियाएं सम्पन्न की गई जो भी महाराज की मृत्यु के बाद की क्रियायें हो सकती थी, सभी क्रियाओं को भगवान पुनः पूर्ण करते हैं, सबने मंदाकिनी का स्नान किया, आज पूरे दिन किसी ने जल भी ग्रहण नहीं किया, प्रभु को चिन्ता हो रही है थके हारे लोग अयोध्या से चले हैं, पूरा दिन सब निराहार, जल भी किसी ने नहीं पिया।
भगवान गुरुदेव की कुटिया में आकर प्रणाम करके बोले गुरुदेव! मेरे अयोध्या के नागरिक बड़े कोमल स्वभाव वाले हैं, इनके शरीर कृष हो गये हैं आप इनको आज्ञा दीजिये कि ये कुछ आहार ले लें, जलपान कर लें, आप जब तक संकेत नहीं करेंगे तब तक कोई कुछ ग्रहण नहीं करेंगे, वशिष्ठजी ने सबको संकेत कर दिया, रूचि के अनुसार आप जैसा चाहें आहार ले सकते हैं।
आहार और तो कुछ था नहीं, वन प्रदेश था, कोल, भील, वनवासीयों को पता लगा कि हमारे प्रभु का परिवार आया है, माताऐं आयी है, गुरुदेव आये हैं, पूरा का पूरा नगर आया है तो कोल-भील जो भी वहाँ के निवासी थे सब दौड-दौड कर सेवा में जुट गये हैं।
कोल किरात भील बन बासी, मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी।
भरि भरि परन पुटी रूचि रूरी, कंद मूल फल अंकुर जूरी।।
अमृत जैसे अति स्वादिष्ट कंद-मूल और फल टोकरों में भर-भर कर ले लेकर आये हैं, लोग कहते हैं बन के लोगों को क्या शिष्टाचार आता होगा? बहुत विनय करके प्रणाम करते हुए दे रहे हैं, कहते हैं ये छोटी सी हमारी भेंट स्वीकार करो।
फलों के स्वाद, गुण बता रहे हैं कि ये क्या हैं, कैसा है? लोग उनसे फल लेते हैं पर पूछ रहे है कि भैया क्या दाम है इनका, वो दाम देने की कोशिश करते है, पर वे कहते हैं हम नहीं ले सकते, उनकी आँखों में आँसू आ गये, बोले इनके कोई भाव नहीं है ये बेभाव हैं इनका कोई मूल्य नहीं आप ऐसे ही ले लीजिये।
नागरिकों ने कहा बिना मूल्य के हम कैसे ले सकते है, तुम बिना मूल्य के क्यों देना चाहते हो? मीलों ने कहा कि हमको भगवान भी बिना मूल्य के मिले हैं, आपको प्रभु प्राप्ति के लिये मूल्य चुकाना पड़ा होगा, यज्ञदि करना पड़ा होगा, साधना करनी पड़ी होगी, हम तो कुछ भी नहीं जानते थे, हमको तो बिना मूल्य के ठाकुर मिला है।
इसलिये जो बिना मूल्य के मिले है उस हम बिना मूल्य के ही लौटा रहे हैं लेकिन तब भी लोग लेने को तैयार नहीं “देहि लोग बहु मोल न लेही” बिना मूल्य के हम नहीं लेंगे, कोल भील कहते है हम तो अति नीच हैं हमको तो रामजी की कृपा से आपका दर्शन हुआ है हमारे कहाँ भाग्य थे कि हम आपका दर्शन करते।
ऐसा लगता है कि प्रयाग ही मानो इस मरूभूमि में प्रकट हो गया हो, आप हमारे मेहमान हैं ये हमारे लिये सौभाग्य की बात है और जो मूल्य की बात करते है न तो हमारी आप अपने ऊपर इतनी ही कृपा समझ लीजिये कि हम आपकी कोई चीज नहीं चुरा रहे हैं।
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई, लेहिं न बासन बसन चोराई।
हम जड जीव जीव गन घाती, कुटिल कुचाली कुमति कुजाती।
पाप करत निसि बासर जाहीं, नहि पट कटि नहिं पेट अधाहीं।
कोल भील हाथ जोड़-जोड कर कहते है हमारी इससे बड़ी और क्या सेवा हो सकती है कि हम आपके बर्तन और वस्त्र चुरा कर नहीं ले जा रहे, हमारा तो सारा जीवन ही पाप में गया है, हमे न तो पेट भरकर कभी भोजन मिला न कभी तन ढकने को वस्त्र, पाप के कारण हम हमेशा ऐसे ही रहे; लोगों ने पूछा ये स्वभाव में परिवर्तन संतो के सत्संग से आया है? कोल भील बोले नहीं
“यह रघुनंदन दरस परभाऊ”
जब ते प्रभु पद पदुम निहारे।
मिटे दुसह दुख दोष हमारे।।
बड़ी विनम्रता से कहा नहीं-नहीं ये किसी सन्त का प्रभाव नहीं है ये तो भगवान श्री रामजी के दर्शनों का प्रभाव है, बस उनकी कृपा हो गयी जबसे हमने भगवान के श्री चरणों का दर्शन किया है तब से हमारे सारे दुःख और दोष मिट गये, अशिक्षित, अशिष्ट जो कुछ भी आप बोल सकते है।
ये कोल-भील बनवासी जिनको सभ्यता और शिष्टाचार का न ज्ञान था न भान था वे प्रभु का दर्शन करते हैं उनके स्वभाव में आमूल परिवर्तन हो गया, हम लोग सारे जीवन भर भगवान का भजन करते है लेकिन स्वभाव में उड़द की सफेदी के बराबर भी परिवर्तन नहीं होता।
इतना भजन ध्यान होने के बावजूद भी समाज के लोगों में कोई परिवर्तन नहीं दिख रहा है ऐसा लग रहा है जैसे कि जितना भजन बढ़ रहा है उतना ही जीवन में पाप का वजन भी बढ़ रहा है, ये सब कोल-भीलों से सुनकर सारे अयोध्या के नागरिक उनकी सराहना करने लगे।
[ #शेषअगलेभागमें…………]_
आपका अपना ही- दासानुदास- मणिराम दास
संगीतमय श्री राम कथा एवं श्रीमद् भागवत कथा श्री प्रेम रामायण महाकाव्य जी की कथा के सरस गायक–
संस्थापक/अध्यक्ष- श्री सिद्धि सदन परमार्थ सेवा संस्थान एवं ज्योतिष परामर्श केंद्र श्री धाम अयोध्या जी
संपर्क सूत्र-6394614812/9616544428
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