राह-ए-ज़िन्दगी अब क्यों,
हर तरह सताती है |
मेरी ही परछाइयां,
मुझको अब चिढ़ाती हैं|
कल मेरा वज़ूद कितना,
शक्तिमान लगता था|
आज ढलती शाम में इसपर,
तरस मुझको आती है|
हम सशक्त से कैसे,
अब अशक्त हो बैठे|
ये ढलानें ज़िन्दगी है ,
या कोई बीमारी है|
आईनों के तेवर भी,
अब बदले बदले लगते हैं|
इनमें मेंरी अक्स अब तो,
बेनूर नज़र आती है|
कौन ख़ुद मुख्तार है यहाँ,
वक्त के सभी गुलाम हैं|
घटते बढ़ते चांद की तरह,
सबकी ही कहानी है|
कवि – विजय श्रीवास्तव